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कमाल की औरतें ३२ / शैलजा पाठक

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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>
तुम्हारे प्यार में
जीना था जीभर
मुझे लगा पंख दोगे
दिये तुमने
पर आसमान छीन लिया
मुझे लगा स्वर दोगे
दिया...पर दीवारें ऊंची कर दीं
रंग दोगे...पर कुछ रंग निर्धारित कर दिए
बाहर की दुनिया में मौसम बदलते थे
पर तुमने मुझे एक ही मौसम में रोके रखा
तुम्हारी तिजोरी के अपार खजाने की चाभी
मेरे निढाल होते कमर पर करती है
जरा-जरा सी आवाज़
मेरे निस्तेज पड़े देह पर
तुम सजाते हो जेवर कपड़े
मेरी दुनिया में सिर्फ तुम रहे
और मेरे अ‹दर दफ़न हो गई
एक और दुनिया जिसे मैं
जीना चाहती थी
तुमने अपने सारे वादे
निभा दिए...अपनी शर्तों पर।</poem>
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