1,296 bytes added,
10:32, 20 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शैलजा पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
बुझे हुए चूल्हे में
उपले सी सुगबुगाऊंगी
खाली पड़े डिब्बे में
एक मुट्ठी धान बन जाऊंगी
बंजर पड़ी जमीन में
दूब सी पसर जाऊंगी
मैं एक रंगीन पतंग बन
कट जाऊंगी
अपना रास्ता खुद बनाऊंगी
गंगा किनारे उस नेत्रहीन लड़के के
हाथ में गिरूंगी
जो बस धागे लपेटता है
उसके सिरे पर आसमान बांध आऊंगी
मैं आज उसकी बंद आंखों में
खुल कर मुस्कराऊंगी
मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
रेशमी रुमाल के कोने पर धरे
फूल महकने लगेंगे।</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader