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{{KKRachna
|रचनाकार=शैलजा पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
}}
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<poem>कितना कम बचा है पानी
जब सूखते गले की भर्राई आवाज़
ख़त्म सी होने लगती है
अपने ही आंसू में भीगता इंसान
मर जाता है बूंद भर पानी की आस में

कितनी कम बची है रोटी
ठठरी होते शरीर की
काली रातों सी काली पड़ी देह
हवा के इशारे से डगमगाती है
घुटने पेट में डाल कर मरता है आदमी
रास्ते शोक मनाते हैं फिर भागने लग जाते हैं

कितनी कम बची है धरती
कंटीले सोच के जंगल से पटती
बेसाख्ता गोल-गोल ƒघूमती
हमेशा के लिए थम जाना चाहती है
कि आंगन में गोल-गोल नाचती लड़की की
नीली आंखों का समंदर नही रुकना चाहता
सब ƒघूमना चाहते हैं लड़की के साथ
धरती साथ देती सी ƒघूम रही है

कितना कम बचा है प्रेम
डाकखाने के लाल डिब्बे में
व्यापारी कागज़ों की आंधी है
विज्ञापन के पुर्जे हैं
अन्दर के अंधेरे में
धूं-धूं कर जल रही है एक कहानी
जिनके संदेशों से बच सकता था प्रेम
जो समय से पहुंचा होता

कुछ नहीं बचना चाहता
पर बहुत कुछ बचाना चाहती हूं मैं
कि आंगन में ƒघूम रही हूं लगातार
धरती आकाश चांद सितारे सब गड्ड-मड्ड
भाग कर थाम लो
धरती बचना चाहती है।</poem>
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