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10:17, 24 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=
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{{KKCatGhazal}}
<poem>कितने ही गुल खिलवाएगी-सोच हमारी समझ तुम्हारी.
पूरा गुलशन महकाएगी-सोच हमारी समझ तुम्हारी.
जो न कभी हो पाया तुम बिन,वो भी अब लगता है मुमकिन,
सब कुछ करके दिखलाएगी-सोच हमारी समझ तुम्हारी.
माना दूर बहुत है मंज़िल,उसकी राह बहुत है मुश्किल,
फिर भी हमको पहुंचाएगी-सोच हमारी समझ तुम्हारी.
जो न कभी सोचा है हमने,जो न कभी सोचा है तुमने,
ऐसा भी कुछ लिखवाएगी-सोच हमारी समझ तुम्हारी.
सम्बन्धों का सूत्र यही था,पर हमको मालूम नहीं था,
हमको-तुमको मिलवाएगी-सोच हमारी समझ तुम्हारी.
हम थे मौन बने तुम भाषा,फिर जीवन में जागी आशा,
अब तो सबको ही भाएगी-सोच हमारी समझ तुम्हारी.
</poem>