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19:32, 24 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=
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{{KKCatGhazal}}
<poem>सोच रहा हूँ-क्या तुम हो.
दर्द हो या कि दवा तुम हो.
तुमसे रिश्ता कोई नहीं,
फिर भी इक रिश्ता तुम हो.
अपने तो हैं ही अपने,
अपनों से ज़्यादा तुम हो.
क्यों आता है ज़ेहन में-
सच हो या सपना तुम हो.
कोई कुण्डी खटकाये,
मुझको ये लगता तुम हो.
श्याम मुझे मानो न सही,
पर मेरी राधा तुम हो.
मैं गर खुद को प्यार कहूँ,
मेरी परिभाषा तुम हो.
चाहत के दोषी दोनों,
आधा मैं आधा तुम हो.
यों ही मुझे अपना कहते,
या कुछ संजीदा तुम हो.
दरवाज़ा खोला उसने,
फिर बोला-अच्छा, तुम हो.
मैं तो साथ तुम्हारे हूँ,
क्यों कहते तनहा तुम हो.
जब भी मेरा फ़ोन बजा,
मैंने ये सोचा तुम हो.
</poem>