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दिल के साथ जिया / कमलेश द्विवेदी

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<poem>जिसने ज़्यादा सोचा-समझा वो मुश्किल के साथ जिया.
मैं तो भाई हर मुश्किल में अपने दिल के साथ जिया.

आँधी या तूफाँ हो कोई रोक न पायेगा उसको,
जो दरिया के बीच रहा फिर भी साहिल के साथ जिया.

मत दो ऐसा दर्द किसी को जो दिल में ही बस जाये,
कौन यहाँ पर ज़्यादा दिन तक दर्दे-दिल के साथ जिया.

बोझ न समझ तनहाई को जिसने उससे यारी की,
सच मानो वो तनहाई में भी महफ़िल के साथ जिया.

सोते-जगते हरदम रक्खो मंज़िल अपनी आँखों में,
मंज़िल उसने ही पायी है जो मंज़िल के साथ जिया.

होशियार दुश्मन अच्छा है जाहिल दोस्त नहीं अच्छा,
जाने कैसे इतने दिन तक वो जाहिल के साथ जिया.

क़ातिल कोई और था लेकिन झूठी एक गवाही से,
मुजरिम बन ताउम्र बेचारा वो क़ातिल के साथ जिया.
</poem>
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