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09:15, 2 जनवरी 2016 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रदीप मिश्र
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''' विज्ञापन – दो '''
देश के तेज़ी से बढ़ते हुए
अखबार के विज्ञापन में पढ़ा
कब तक उलझा रहेगा इन्दौर पोहा-जलेबी में
इस उलझे हुए इन्दौर की मुक्ति बहुत ज़रूरी थी
मुक्ति का हल ढूंढऩे अख़बार के दफ्तर पहुँचा
सम्पादक का पता पूछने पर
ज़वाब मिला
अख़बार कब तक उलझा रहेगा सम्पादकों में
सम्पादकों की जगह अब यहाँ प्रबंधक पाए जाते हैं
मुझे ज़वाब मिल गया था
उनके अगले विज्ञापन का मसौदा है
हिन्दुस्तान कब तक उलझा रहेगा
तिरंगे और स्वतंत्रता में
भगत सिंह की ज़वानी को धिक्कारता हुआ
मैं पिज़्जा और बर्गर खा रहा हूँ
मैं उड़ान पर हूँ
क्योंकि मेरे नीचे की ज़मीन खिसक गयी है।
</poem>