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उम्मीद/ प्रदीप मिश्र

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<poem>
''' उम्मीद '''
 
 
आज फिर टरका दिया सेठ ने
पिछले दो महीने से करा रहा है बेगार
उसे उम्मीद है
पगार की
 
हर तारीख़ पर
पड़ जाती अगली तारीख़
जज-वकील और प्रतिवादी
सबके सब मिले हुए हैं
उसे उम्मीद है
जीत जाएगा मुक़दमा
 
तीन सालों से सूखा पड़ रहा है
फिर भी किसानों को उम्मीद है
बरसात होगी
चुका देंगे कर्ज़
 
आदमियों से ज्यादा लाठियाँ हैं
मुद्दों से ज्यादा घोटाले
जीवन से ज्यादा मृत्यु के उद्घोष
फिर भी वोट डाल रहा है वह
उसे उम्मीद है,
आयेंगे अच्छे दिन भी
 
उम्मीद की इस परम्परा को
हमारे समय की शुभकामनाऐँ
 
उनको सबसे ज़्यादा
जो उम्मीद की इस बुझती हुई लौ को
अपने हथेलियों में सहेजे हुए हैं।
</poem>
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