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13:24, 2 जनवरी 2016 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रदीप मिश्र
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<poem>
''' काठ की आलमारी में किताबें – एक '''
एक काठ की आलमारी में
बहुत सारी किताबें हैं
किताबों में बहुत सारे पन्ने
पन्नों पर वाक्यों का मुहल्ला
मुहल्ले में अनन्त विचार
विचारों में भावों का समुद्र
यानि एक-एक पृथ्वी बन्द है
एक-एक किताब में
किताबें बन्द हैं
काठ की आलमारी में
और आलमारी घर के
ऐसे कोने में पड़ी है
जहाँ सूरज की रोशनी
नहीं पहुँच पाती
एक दिन गल जाएगी काठ की आलमारी
आलमारी मे कैद सारी किताबें
किताबों में जीवित वाक्यों के मुहल्ले
मौत का ताण्डव होगा महाभयानक
लेकिन कहीं कोई ख़बर नहीं होगी
इस ख़बर से बेख़बर
अगली पीढ़ी को पता भी नहीं चलेगा कि
जहाँ टीवी और कम्प्युटर रखें हैं
वहाँ कभी किताबों से भरी आलमारी हुआ करती थी।
</poem>