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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>पूर्व - दृश्य</b>

<b>[सागर-तट : लहरों का तटीय चट्टानों से टकराने का समवेत स्वर - लयात्मक संगीतमय. तटीय वन का घना आवरण. एक विशाल वृक्ष से टिकी एक आकृति मौन अंधकार में डूबी बैठी है. लहरों की लय से एक समूहगान का स्वर उभरता है]</b>

<b>समूहगान</b> - कालचक्र पूरा है घूम लिया -
ये जो हैं कालपुरुष
कालजयी
इनका भी लीलायुग पूर्ण हुआ |
एकाकी बैठे हैं मौन ये -
डूबे हैं
अपने ही सिरजे एकांत में |

यह अनंत यात्रा की बेला है
जीवन के अंतरीप
सिमट रहे
और महासागर में
समा गये हैं अनंत शेष-पुरुष -
धरती पर लीला का
पूरा अध्याय हुआ एक और |

एक नया युग आने वाला है -
होगा वह कैसा ...
क्या जानें ?

<b>[लहरों का सामूहिक स्वर धीरे-धीरे लौट जाता है. अंधकार और अधिक घना हो गया है, परबतु आकृति के चारों ओर एक तेजोमय वलय है, जिसमें आसपास के आकर पूरी तरह स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं | आकृति नितांत मौन है, किन्तु उसी मौन से एक विचार-स्वर उभरता है]</b>

<b>विचार स्वर</b> - कैसा सम्मोहक है
जीवन का क्रम यह -
अपना ही रचा हुआ
यह सारा सृष्टि-चक्र
कैसा है सुंदर-आकर्षक !

रोज़ नयी आभा से घिरा हुआ -
सूरज के उगने की बेला से
सूरज के ढलने की बेला तक
(उसके उपरांत भी)
मन का यह सारा भ्रम -
आँखों में पलती
आकृतियों की मृगतृष्णा-
कानों में रचे-बसे
ध्वनियों के आमंत्रण -
गंधों के मदमाते मलय-प्रश्न
और ...
सुखी छुवनों से भरी-भरी
साँसों की यात्रा-पथ देह यह -
सब कुछ कितना सुंदर !

जन्मों के आर-पार
यात्राएँ बार-बार
और ...
द्वीप होने की इच्छाएँ हैं अनंत -
चलता ही रहता है
महारास सपनों का |

<b>[दूर वनखंडी से आती वंशीधुन गूँजती है | आकृति एकाएक चौंककर एकाग्र मन उस वंशीधुन को सुनती है | नाचते पगों की तालमय आहट के बीच तालियों की समवेत लय और बीच-बीच में नूपुरों की रुनुक-झुनुक किसी सुदूर लोक से आती लगती है | नृत्य और वंशीधुन धीरे-धीरे तेज हो जाते हैं | अंततः एकाकार होकर एक लय-वलय में बदल जाते हैं, जिसमें नृत्यरत आकृतियाँ उभरती हैं : एक तेज प्रकाश-पुंज से घिरी हुई आकृतियाँ - बीच में वंशी बजाते हुए कृष्ण की मनोरम आकृति चारों ओर नृत्य-रत गोपियाँ]</b>

<b>विचार स्वर</b> - मन कैसा है विचित्र !
इस अनंत यात्रा के क्षण में
फिर लौट रहा पीछे |
वंशी में बसी हुई
लय की जिज्ञासा को सुनना
कैसा है मोह रहा आज भी !

राधा के पास
छोड़ आया था वंशी मैं युगों पूर्व ...

वह भी था एक विचित्र पर्व -
बचपन से यौवन को जोड़ती
मीठी रसभीगी पगडंडी वह ... ...
अद्भुत थी |

<b>[नेपथ्य से कथावाचन आरंभ होता है - वाचन धीरे-धीरे दृश्य में परिवर्तित हो जाता है]</b>

<b>कथा वाचन</b> - यह बाल कृष्ण की
कथा अलौकिक है |

नटखट क्रीड़ाएँ बचपन की
नंदलाला की
सदियों से मोह रहीं सबको |
यमुना-तट का
वह वृन्दावन है धाम अनूठा
मनभाया
कान्हा ने जहाँ
धूप के कोमल क्षण सिरजे |

वे क्षण युग-युग के सपने हुए
अपार्थिव |
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