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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - पाँच</b>

<b>कथा वाचन</b> - दिन बीते-बरसों बीते-आधा युग बीता |
हो गये 'कन्हैया' गोकुल के
अब देव कृष्ण |
आसुरी शक्तियों का विस्तार रोकने को
श्रीकृष्ण निरंतर यत्नशील |

वे त्राता हैं - वे रक्षक हैं - वे उद्धारक
जन-जन के
उनके सपनों के |
कितने ही हुए प्रवाद
किंतु ... श्रीकृष्ण रहे उनसे ऊपर -
ईर्ष्या-द्वेषों से परे रहे
वे मित्र सभी के - सबके प्रिय भी हैं |
उनका आकर्षण सबको रहा मोहता है
आस्था देता है |

था धरतीपुत्र
हुआ अभिमानी नरकासुर -
आसुरी संपदा का प्रतीक |
संपदा छीनकर देवों की वह महाबली
हो गया भोग की संस्कृति का संपोषक |
अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर उठी प्रजा |
तब टेरा था केशव को देवों ने |

वध किया कृष्ण ने था उस अत्याचारी का -
सब मुक्त हुए |

<b>[नरकासुर की नगरी भोगवती- प्रागज्योतिषपुर - एक ऊंचे पर्वत में गहरे खोदकर बनाया गया अनूठा दुर्ग | कृष्ण उद्धव एवं सात्यकि के साथ गहरे तल में बने नरकासुर के भव्य महल को पारकर तलघर में प्रवेश कर रहे हैं]</b>

<b>कृष्ण -</b> उद्धव-सात्यकि !
देखी तुमने इस भव्य भवन की संरचना |
अद्भुत यह दुर्ग -
प्रबल - फिर भी कितना कोमल -
पत्थर में आँकी गईं कोंपलें - कविताएँ |

था क्रूर
किन्तु कवि भी नरकासुर था महान-
सौन्दर्य-दृष्टि उसने पायी थी अनुपमेय |

हैं यहीं कहीं अन्तःपुर में
बंदी ललनाएँ वे असंख्य -
वे प्रजापुत्रियाँ
जिन्हें हरा नरकासुर ने
केवल वासना-तृप्ति हेतु -
था मोह उसे सुन्दरता का
जो कुछ भी सुंदर
उसको संचित करने का |
उसने माना केवल शरीर को परम सत्य |
है यही विकृति |
हो गयीं वस्तु कन्याएँ भी -
मन नहीं देख पाया वह उनके सुन्दरतर |
है यही विकृति |
संग्रह ... संग्रह ... केवल संग्रह -
है यही आसुरी-वृत्ति विकृत |

<b>[वे लोग अन्तःपुर के उस भाग में आ पहुंचे हैं, जो एक विशाल तलघर के रूप में है | चारों और बने कटघरों जैसे कक्षों में असंख्य युवतियां बंदी हैं | विभिन्न देशों-क्षेत्रों से बलात लायी गयीं ये युवतियां भयभीत होते हुए भी उत्सुक दृष्टि से इन तीनों नवागंतुओं को देखतीं हैं | कृष्ण के आदेश से अन्तःपुर के नपुंसक-प्रहरी सभी स्त्रियों को एक विशाल गुहा-कक्ष में एकत्रित करते हैं | उद्धव उन सहमी युवतियों की भीड़ को संबोधित करते हैं]</b>


<b>उद्धव -</b> देवियों !
तुम्हारी नरक-यातना हुई शेष -
तुम हुईं मुक्त |
नरकासुर का वध हुआ
पाशविक सत्ता का हो गया अंत |
तुम हो स्वतंत्र -
यादव श्रीकृष्ण तुम्हारे सम्मुख हैं, देखो |

<b>[श्रीकृष्ण का नाम सुनते ही सभी कन्याओं की दृष्टि, जिसमें प्रीति और सम्मोहन का मिला-जुला भाव है, उन पर केन्द्रित हो जाती है | कृष्ण की मुस्कान उन्हें आश्वस्त करती है - उनके मन में आस्था उपजाती है | तभी बाँसुरी की धुन गूँजती है और राधा की छायाकृति उन सभी नारियों को समाहित करती उस पुरे गुहा-कक्ष को अपने विस्तार से भर देती है - वे राधा-भाव से आविष्ट हो आत्म-विह्वल होकर रुदन करने लगती हैं | फिर उन सबका संयुक्त विचार-स्वर उभरता है - पहले एक गूँज के रूप में और फिर स्पष्ट शब्दों में]</b>

<b>विचार स्वर</b> - श्रीकृष्ण देव !
त्राता सबके !
हम हैं स्वतंत्र - हो गयीं मुक्त इस बंधन से,
पर जाएँ कहाँ ?
पतिताएँ हैं - परित्यक्ता हैं -अस्वीकृत हैं
अब जाएँ कहाँ ?
अब दो कान्हा, अपने हाथों से हमें मुक्ति
हर बंधन से है मुक्ति तुम्हीं में, हे ईश्वर !
हम वर्षों से हैं कृष्ण-रूप
हम सब की गति तुम ही, केशव !
तुम ही, केशव... तुम ही, केशव !

<b>[कृष्ण उनके इस सामूहिक आवाहन से उद्वेलित हैं - उन्हें वंशी की धुन सुनाई देती है -फिर राधा का स्वर भी स्पष्ट सुनाई देता है]</b>

<b>राधा -</b> हाँ, कृष्ण ! कन्हैया ! मेरे कनु !
अब इन सबकी गति तुम ही हो |
स्वीकारो इनको और मान दो जीवन का -
नरकासुर के बंधन से होगी मुक्ति तभी |
ये सभी तुम्हारी राधा हैं -
उत्पीड़ित और तिरस्कृत हैं - अस्वीकृत हैं -
तुम ही त्राता हो
जीवनदाता भी इनके |

ये तुम्हें रहीं हैं पूज युगों से, जन्मों से -
स्वीकार करो ... स्वीकार करो !

<b>[राधा का स्वर दूब जाता है | वंशी का सुर और गहराकर एक स्वर-वलय में बदल जाता है | उद्धव और सात्यकि की आकृतियाँ धुँधला जाती हैं | कृष्ण की आकृति विराट हो जाती है और उन सभी कन्याओं को घेरे हुए जो राधा की विशाल छायाकृति है, उससे एकाकार हो जाती है]</b>

<b>कथा वाचन</b> - यह राधा-भाव कृष्ण का है
अद्भुत असीम |
दोनों अभिन्न जब होते हैं
तब महारास होता अनन्य
जिसमें होती बस स्वीकृति ही -
स्वीकृति ही तो है मूलभाव
इस सारी सृष्टि मनोभव का |
इस सहज भाव-संज्ञा में हैं सम्मिलित सभी |

जब-जब भी राधा-भाव
किसी में जागेगा
कान्हा उसको अपनायेंगे-
आतुर अभिन्न हो जायेंगे |

</poem>
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