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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>उत्तर - दृश्य</b>

<b>[समुद्रतटीय वनखंडी का वही एकांत | शाप की ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ उभरती हैं - साथ में पारदर्शिकाएँ भी]</b>

<b>कथा वाचन</b> -
<b>(नारी-स्वर)</b> - छत्तीस वर्ष के बाद, कृष्ण !
यादवकुल होगा नष्ट तुम्हारे हाथों ही |

<b>(पुरुष-स्वर)</b> - यह नर जो गर्भवती नारी बन कर छलने आया
हे धृष्ट यादवों !
इससे जन्मेगा मूसल वह
जो नष्ट करेगा तुम सबको |
यह ऋषियों का अपमान तुम्हारा काल हुआ |
यह कृष्ण-पुत्र है साम्ब
गर्भ इसका ...
भारी, सुनो, पड़ेगा यदुकुल को |

<b>[पारदर्शिका में गांधारी के शाप की झलक पहले उभरती है | दूसरी पारदर्शिका में विश्वामित्र आदि ऋषियों के शाप के प्रसंग का दृश्य दिखाई देता है | कथावाचन का स्वर नेपथ्य में गूँजता है]</b>

<b>कथा वाचन</b> - जनमा फिर मूसल
कालवज्र बन यदुकुल का |
राजा ने किया उपाय
उसे पिसवा कर फिंकवाया
सागर में दूर कहीं -
पर चूर्ण वही लौटा तट पर
जिससे उपजी वह घास विनाशी वज्ररूप
जो नाश करेगी यदुकुल का |

जो अनी बची थी मूसल की
बन गयी व्याध का वाण
और ...

<b>[कृष्ण का विचार-स्वर उभरता है]</b>

<b>विचार स्वर</b> - हाँ, राधे !
यह यदुकुल
जिसका मैं नियंता बना
और हुआ रक्षक हर संकट में -
पाकर समृद्धि हो गया भ्रष्ट |
पहले ही उद्धत था
हुआ दर्पयुक्त-धृष्ट
और फिर अनैतिक भी |

महासमर में
सारे क्षत्रियकुल क्षीण हुए -
यादव बस बचे रहे -
महाराज उग्रसेन का शासन निर्बल था |
यदुकुल में वैसे भी कुल-सत्ता अधिक रही -
केंद्र-शक्ति रही सदा क्षीण ही |
बाहरी विरोध नहीं था कोई
और नीतिहीन- दिशाहीन थी भौतिक समृद्धि सभी |
शक्ति और ऊर्जा का अतिशय था -
दुरूपयोग उसका था होना ही -
वही हुआ |

राधन !
मैं क्या करता ?
मैं भी अभिशप्त था |
पीढ़ी-दर-पीढ़ी का अनाचार -
भोग ही हुआ जीवन |
मदिरा के दुर्निवार सेवन से -
रात-दिन असंयम से
युवा हुए क्षीण-शक्ति और महा-अविचारी |
धृष्ट और उद्धत थे पहले ही |
और फिर ...
यों आया सर्वनाश एक दिन ... ...

<b>[पारदर्शिका में दृश्य उभरता है | प्रभास-क्षेत्र में यदुकुल का पर्वोत्सव - द्वारका की स्थापना का पर्व | महावृद्धों-बच्चों-स्त्रियों को छोड़कर पूरा यदुकुल सागर-तट पर उपस्थित है | मदिरा का खुलकर सेवन हो रहा है | विविध भोज्य-सामग्री भी है | केवल कृष्ण इस सारे उत्सवी माहौल से अलग-थलग और अछूते कुछ दूरी पर मौन चिन्तन में डूबे बैठे हैं | यादव-प्रमुखों की मंडली में कृष्णपुत्र प्रद्युम्न-साम्ब आदि और पौत्र अनिरुद्ध भी उपस्थित हैं | अन्य प्रमुखों में सात्यकि और कृतवर्मा में कुछ विवाद चल रहा है | थोड़ी ही देर में उनकी आवाजें ऊँची हो जाती हैं | वे रोषभरे स्वर में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं]</b>

<b>सात्यकि</b> - बालक था अभिमन्यु -
यदुकुल का भागिनेय भी था वह -
छः महारथियों में तुम भी तो थे |
कर उसे निशस्त्र - विवश
घेर कर
उसका आखेट किया था तुमने
क्रूर वधिक के समान |

डींगें मत हांको पुरुषत्व की -
कैसा पुरुषार्थ था
सोये हुए लोगों की हत्या का -
कहते हो अपने को महावीर |
यदुवंशी की लज्जा हो तुम तो ...
धिक्-धिक् कृतवर्मा !
बार-बार धिक्कार देता मैं तुम्हें ...

<b>कृतवर्मा</b> - क्या कहने वीरवर -
होते ही नही आज जीवित तुम
यदि उस दिन पार्थ ने
युद्धों के नियम-विरुद्ध
बाँह भूरिश्रवा की काट दी न होती |
और... फिर
जब वे कुरुश्रेष्ठ प्राण तजने को बैठ गये
ध्यान-मग्न
तब तूने उनका सिर काटकर
अपने बल-विक्रम का परिचय था खूब दिया |
शिष्य और गुरु दोनों के
अद्भुत पराक्रम का अनुपम प्रसंग यह |
किस मुँह से ..
धर्म की दुहाई ... तू देता है ... ...


<b>[कृतवर्मा की इस कटूक्ति पर सात्यकि अपना संतुलन खो बैठता है और उछलकर तलवार से उसका सिर काट देता है | क्षणार्ध के लिए सभी यदुवंशी स्तम्भित रह जाते हैं | फिर भोज और अंधक यादव एक साथ सात्यकि पर अपनी-अपनी तलवारें ले टूट पड़ते हैं | सात्यकि को अकेला पा प्रद्युम्न उसकी सहायता के लिए कूद पड़ते हैं, किन्तु कुछ क्षणों में ही दोनों वीर भोज-अंधक योद्धाओं के हाथों मारे जाते हैं | यह देख अन्य कृष्ण पुत्र और वृष्णिवंशी यादव उन पर आक्रमण कर देते हैं | कृष्ण उन्हें रोकने-समझाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु उनकी कोई नहीं सुनता | फिर कृष्ण भी रोष से भरकर सागर-तट पर उगी एरका घास से, जो मूसल के चूर्ण से उपजी थी, यदुकुल का संहार करने लगते हैं | इस प्रकार सभी वृष्णि- अंधक- भोज-शिनि वंश के यादव वीर एक-दूसरे पर प्रहार करके मारे जाते हैं| कृष्ण एकाकी शेष रह जाते हैं - खिन्न-मन वे वहाँ से प्रस्थान कर जाते हैं | पारदर्शिका समाप्त होती है | कृष्ण का विचार-स्वर उभरता है]</b>

<b>विचार स्वर</b> - यों अपने हाथों से मैंने ही नष्ट किया
यदुकुल को |
कुरुओं की माता गांधारी का शाप फला |
और हुआ मानव मैं अंततः -
विचलित हूँ अब तक मैं |

उद्धव था योगी
चला गया पहले ही हिमगिरि पर -
दाऊ ने जलसमाधि ले ली है सागर में |

राधे !
यह लीला - यह माया ...
अब बोझ हुई |
शाप-भ्रष्ट मुझको ...
अब दो अपनी चेतना ...
एक बार फिर, राधन !

मूसल का अंश लिये...
फिरता है व्याध कहीं -
मुक्ति वही देगा अब |

और अब समेटो, चिर-संगिनी
यह लीला भी अपनी |

<b>[तभी अंधकार की दिशा से आकर एक वाण कृष्ण के दाहिने पैर के तलुए में लगता है | रुधिर की ठंडी धार झरती है उनके तलुए से और वंशी का सुर पूरी प्रखरता के साथ गूँजता है | एक प्रकाश-वलय बनता है, जिसमें महारास की नृत्य-मुद्रा में राधा-कृष्ण दिखाई देते हैं | उनकी विशाल छायाकृति में पूरा दृश्य झिलमिलाता है | राधा का स्वर गूँजता हुआ उठता है]</b>

<b>राधा -</b> आओ कनु !
आओ विश्राम करो |
इस पूरी लीला में ...
हम दोनों साथ रहे हैं सदैव |

वरण किया तुमने देवत्व का
और रचा
पूरा का पूरा यह लीलायुग -
अच्छा है ...
तुम हुए मानव फिर अंत में |

मानव की यात्रा का यह पड़ाव -
छूता है जिसमें देवत्व वह -
अनुपम है
और है अलौकिक -
किन्तु देव मानव हो
श्रेयस्कर यही, सखे !

राधा है मानवी
और कृष्ण भी मानव -
दोनों हैं एकरूप -
जब यह एकात्म भाव होता है
तभी लीला यह होती है -
द्वैत में अभिन्न का ऐसा ही अनुभव है |

देखो, है होता जल-प्लावन -
डूब रही है लीलानगरी यह द्वारका |
लोप हुई जा रही है पृथ्वी
लोप हुआ तारा-पथ भी, देखो -
जल होती जा रही है सारी चेतना -
बह रहा प्रवाह में कालचक्र |
आओ, हम दोनों भी सृष्टि-विलय हो जाएँ |
कान्हा, यह जल-प्लावन है
पूरी सृष्टि का -
धरती का - विस्तृत आकाश का
राधा का - राधा के कनु का भी |

<b>[जल की उमड़ती-हुई महाराशि में वंशी का स्वर निरंतर प्रवाहित होता जाता है]</b>

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