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बर्षा बहार / प्रेमघन

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|संग्रह=जीर्ण जनपद / बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
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<poem>
जब बर्षा आरम्भ होय अति धूम धाम सों।
बरषै सिगरी निसि जल कर आरम्भ शाम सों॥
उठैं भोर अन्दोर सोर दादुर सुनि हम सब।
बदली जग की दसा लखैं आवैं बाहर जब॥
किए हहास बहत जल चारहुँ दिसि सों आवै।
गिरि खन्दक मैं भरि तिहि को तब नदी सिधावै॥
भरैं लबालब जब खन्दक अतिशय मन मोहैं।
बँसवारी के थान बोरि नव छबि लहि सोहैं॥
धानी सारी पर जनु पट्टा सेत लगायो।
रव दादुर पायल ध्वनि जाके मध्य सुनायो॥
श्याम घटा ओढ़नी मनहुँ ऊपर दरसाती।
ओढ़े बरसा बधू चंचला मिसि मुसकाती॥
भाँति-भाँति जल जन्तु फिरत अरु तैरत भीतर।
भाँति-भाँति कृमि कीट पतंगे दौरत जल पर॥
मकरी और छबुन्दे, तेलिन, झींगुर, झिल्ली।
चींटे, माटे, रीवें, भौंरे, फनगे, चिल्ली॥
जनु हिमसागर पर दौरत घोड़े अरु मेढ़े।
सर्राटे सों सीधे अरु कोऊ ह्वै टेढ़े॥
बिल में जल के गए ऊबि उठि निकरे व्याकुल।
अहि, वृश्चिक, मूषक, साही, विषखोपरे बाहुल॥
लाठी लै-लै तिनहिं लोग दौरावत मारत।
किते निसाने बाजी करत गुलेलहि धारत॥
कोउ सुधारत छप्पर औ खपरैलहिं भीजत।
भरो भवन जल जानि किते जन जलहि उलीचत॥
लै कितने फरसा कुदाल छिति खोदि बहावैं।
बाढ़ेव जल आँगन सों, नाली को चौड़ावैं॥
लै किसान हल जोतहिं खेतहिं, लेव लग्यो गुनि।
बोवत कोउ हिंगावत बाँधत मेड़ कोउ पुनि॥
</poem>
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