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होने का सागर / अज्ञेय
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09:33, 31 मार्च 2008
सागर जो गाता है <br>
वह अर्थ से परे
है--
है—
<br>वह
जो
तो
अर्थ को टेर रहा है। <br> <br>
हमारा ज्ञान जहाँ तक जाता है, <br>
वह सागर में नहीं, <br>
हमारी मछली में है <br>
जिस
जिसे
सभी दिशा में <br>
सागर घेर रहा है। <br> <br>
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Sumitkumar kataria