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08:05, 7 फ़रवरी 2016 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
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<poem>
ज़ुल्फ़ से लिपटा जब तौलिया हट गया
बालकोनी में फिर एक बादल उठा
सुब्ह के स्टोव पर चाय जब खौल उठी
उँघता बिस्तरा कुनमुना कर जगा
धूप शावर में जब तक नहाती रही
चाँद कमरे में सिगरेट पीता रहा
दिन तो बैठी है सीढ़ी पे चुपचाप से
और टेबल पे है फोन बजता हुआ
दोपहर सोफे पर थक के लुढ़की सी थी
न्यूज-पेपर था बिखरा हुआ आज का
साँवली शाम आगोश में आयी जब
फ़र्श का सुर्ख़ कालीन क्यूँ हँस पड़ा
खिलखिलाते हुये लॉन के झूले से
मखमली घास ने इक लतीफ़ा कहा
रात की सिलवटें नज़्म बुनने लगीं
कँपकपाता हुआ बल्ब जब बुझ गया
(लफ़्ज़, सितम्बर-नवम्बर 2011)