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हम नदी के साथ-साथ / अज्ञेय
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10:51, 31 मार्च 2008
नदी की नाव<br>
न जाने कब खुल गई<br>
नदी ही सागर में
खुल
घुल
गई<br>
हमारी ही गाँठ न खुली<br>
दीठ न धुली<br>
हम फिर, लौट कर फिर गली-गली<br>
अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे। <br>
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Sumitkumar kataria