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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
हवा ये कैसी चली, माजरा ये कैसा है
हरा-भरा सा बग़ीचा डरा ये कैसा है

छुपा है और ही मतलब तुम्हारे लहज़े में
जो धमकियों सा लगे मशवरा ये कैसा है

अजब है शह्‍र कि हर कोई गुम है अपने में
ख़ुदी में सिमटा हुआ दायरा ये कैसा है

मिलेगा जब भी किसी से गले लगा लेगा
सयानी भीड़ में इक बावरा ये कैसा है

सवाल कितने उठाता है रोज़ रात ढ़ले
ज़मीर हाय मेरा कठघरा ये कैसा है

सिफ़ारिशों की हो अर्ज़ी या पैरवी हो कोई
कि तौलने का हमें बटखरा ये कैसा है

चले भी आओ, तुम्हारे बिना अब इस घर को
दिखा के लोग कहे मक़बरा ये कैसा है

बुना है शेर तुम्हारे लिये अभी मैंने
सुनो तो और कहो तो ज़रा ये कैसा है





(त्रैमासिक नई ग़ज़ल, जुलाई-सितम्बर 2012)
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