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14:22, 26 फ़रवरी 2016 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
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<poem>
कितने हाथों में यहाँ हैं कितने पत्थर, ग़ौर कर
फिर भी उठ कर आ गये हैं कितने ही सर, ग़ौर कर
आस्माँ तक जा चढ़ा सेंसेक्स अपने देश का
चीथड़े हैं अब भी कितनों के बदन पर, ग़ौर कर
जो यहाँ जितना बड़ा, उतनी बड़ी है उसकी भूख
कितने दरियाओं को निगले इक समन्दर, ग़ौर कर
घूम आते हैं विदेशों से तो अक्सर यार लोग
अपनी है हर दिन कवायद घर से दफ्तर, ग़ौर कर
उनके ही हाथों से देखो बिक रहा हिन्दोस्तां
है पहन रक्खा जिन्होंने तन पे खद्दर, ग़ौर कर
ये बुज़ुर्गों की हवेली कब तलक चमकेगी यूँ
कहते क्या दीवार से टूटे पलस्तर, ग़ौर कर
जो पढ़े आँखें मेरी, मुझको वो दीवाना कहे
तू भी तो इनको कभी फ़ुरसत से पढ़ कर ग़ौर कर
(हंस फरवरी 2012, शेष जुलाई-सितम्बर 2009)