Changes

आलोक / सुधीर सक्सेना

1,085 bytes added, 16:41, 25 मार्च 2016
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह=समरकंद में...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुधीर सक्सेना
|संग्रह=समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना
}}
{{KKCatKavita‎}}
<poem>
स्त्री
रोज बालती है दिया
बिला नागा

आँचल की ओट में धर
अलाय बलाय और फूँकों से बचा
ले जाती है दिये को
अंधी कोठरी में

दिये से लड़ती है वह
तमाम बैरियों से
अहर्निश

सदियों से
बिला नागा
दिया बाल रही है
स्त्री

वह स्त्री
सूर्य के लिये
सबसे बड़ी शर्म है
ब्रह्माण्ड में

जब तक
स्त्री है
आसमान में बिला नागा
फैलती रहेगी रोशनी।
उगता रहेगा सूर्य।
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
5,482
edits