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{{KKRachna
|रचनाकार=चाँद हादियाबादी
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[[Category:गज़ल]]
<poem>

जिसने मुँह में ज़बान रक्खी है
उसने अपनी ही ठान रक्खी है

यह तो जाएगी जाते-जाते ही
क्यों हथेली पे जान रक्खी है

साथ जिसने दिया है हर पल-छिन
उसने ही आन-बान रक्खी है

रोज़ मरतें हैं रोज़ जीते हैं
रौनके दो जहान रक्खी है

ऐ फ़लक तू खुला है ख़ाली है
चाँद तारों ने शान रक्खी है
</poem>