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|रचनाकार=प्रदीप शुक्ल
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|संग्रह=गुल्लू का गाँव / प्रदीप शुक्ल
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'''प्रदीप शुक्ल की बाल कविताएँ'''
'''[[प्रकाश मनु]]'''
००
फेसबुक बहुत से मित्र लेखकों की तरह मेरा भी सिरदर्द है। बल्कि सिरदर्द गलत कहा। सच में तो वह गले की फाँस है। कभी एक भले मित्र की दोस्ताना सलाह पर खेल-खेल में यह फंदा गले में डाल लिया था। पर तब नहीं जानता था कि यह मजाक इतना भारी बैठेगा। कुछ दिन तो बड़ी रुचि और खूब इफरात से अपना समय इसमें खर्चता रहा। पर फिर लगा, जो काम-काज करना है, वह तो छूट ही रहा है। मनु भाई, आप तो गए काम से! और फिर भीतर किसी ने कहा, “भाग...भाग...भाग...!!”
रूठ गए तारों के किस्से
गाकर मुझे सुनाता।
यह कविता चाँद पर लिखी गई है, पर उससे भी ज्यादा यह बच्चे के मन की कविता है जो चाँद को ऐसा राजदार दोस्त बना लेता है, जैसे सिर्फ़ लँगोटिए यार होते हैं। ऐसे ही बच्चे के मन पर लिखी गई एक और बड़ी ख़ूबसूरत कविता प्रदीप के यहाँ है, जिसमें बच्चा बहुत कुछ कर गुज़रना चाहता है। वह हवाओं के संग खेलना चाहता है, घटाओं के गाल छूकर देखना चाहता है और तितलियों की तरह मुक्ति के आकाश में उड़ना चाहता है —
सचमुच यह बच्चों की अलमस्त धमाचौकड़ी की दुनिया ही तो है, जिससे रूठे हुए चेहरों पर मुसकान आ जाती है। अब मम्मी ख़ुश हैं, पापा ख़ुश हैं और बच्चों की शैतानियों पर और नया रंग आ गया है —
पापा अभी-अभी निकले हैं
बाहर जाते ही पिघले हैं,
इतनी बारीक बातें बच्चों की कविता में लाना और इतनी मजेदारी से उसे निबाह ले जाना, यह कोई छोटी बात नहीं है। इससे यह भी पता चलता है कि प्रदीप की बाल कविता एक नए जमाने की कविता है, जिसमें आज के समय की बहुत सी सच्चाइयाँ, मनोभाव और गतिविधियाँ भी गुँथ सी गई हैं।
और फिर गाँव के परिवेश और किसानी जीवन की बातें प्रदीप शक्ल जिस तरह अपनी बाल कविताओं में लाते हैं, उससे उनकी बाल कविताओं में कौतुक और सरलता का मिला-जुला एक नया रंग आ गया है। इनमें गाँव के दुख-दर्द और ग़रीबी की चित्र हैं तो उस सरलता के भी, जो हमारी आज की शहराती दुनिया में बड़ी कौतुक की वस्तु बन गई है। प्रदीप को इसकी सही पहचान है और जब वे बाल-कविताओं में इसे लाते हैं, तो रंग जम जाता है—
आओ तुम्हें ले चलें, गुल्लू के गाँव,
घुसते ही मिलेगी, पीपल की छाँव।
इसी तरह गाँव में कम्प्यूटर आया तो क्या-क्या तमाशे हुए, यह भी जरा जानना चाहिए। प्रदीप की कविता इसे बड़े खिलंदड़े रूप में पेश करती है—
गुल्लू का कम्प्यूटर आया,
पूरा गाँव देख मुसकाया।
अंकल ने सब तार लगाए,
गुल्लू को कुछ समझ न आए।
इसके बाद जब कम्प्यूटर चालू हुआ और इण्टरनेट पर गूगल में डालकर कुछ भी खोजने की बात आई तो कक्का को अपनी गुमी हुई भैंस याद आ गई, “कक्का कहें चबाकर लइया,/मेरी भैंस खोज दो भैया।/बड़े जोर का लगा ठहाका,/खिसियाए से बैठे काका।”
आज किसानी जीवन पर लिखने वाले कवि बहुत कम हैं। इस लिहाज से इतने आत्मीय परस के साथ गाँव और गाँव के लोगों को बाल कविता में लाना और कविता की शर्त पर लाना सचमुच एक बड़ी उपलब्धि है।
मगर ये तो प्रदीप शुक्ल की बाल कविताओं के कुछ ही रंग हैं, जो जहाँ-तहाँ से उठा लिए गए हैं। उन पर सच में विस्तार से लिखा जाना चाहिए। इसलिए कि बाल कविताओं में इतनी दमदार शुरुआत करने वाले कवि हमारे यहाँ बहुत अधिक नहीं हैं।
वे लिखें, बहुत लिखें, बहुत ख़ूबसूरत लिखें और तमाम प्रलोभनों से बचकर बच्चों की दुनिया और आज के समय की सच्चाइयों से जुड़कर लिखें, अपनी बाल-कविताओं में और ज्यादा बचपन के रंग बिखेरें, यह मेरी ही नहीं, बहुतों की आशा और उम्मीद है। प्रदीप शुक्ल आज की बाल-कविता के एक ख़ूबसूरत सितारे हैं, इसकी चमक और झिलमिलाहट कभी मन्द न हो, यह कामना करते हुए अब मैं ओट होता हूँ। आप प्रदीप शुक्ल की बाल-कविताएँ पढ़िए और उस विशाल ताल में बार-बार डुबकियाँ लगाइए, जिसमें बड़ी चटुल लहरें हैं और बड़ा ही निर्मल पानी। तब आप जान पाएँगे कि प्रदीप शुक्ल की कविताएँ औरों से अलग क्यों हैं और उनमें कैसी दुर्लभ मणियाँ पिरोई हुई हैं।
इस नवोदित, मगर बेहद सम्भावनापूर्ण कवि को मेरी सच्ची और प्यार भरी शुभ कामनाएँ!
प्रकाश मनु
545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,मो. +91-9810602327</poem.>