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यों यह मैं जानता हूँ कि इस संग्रह का दूसरा संस्करण लोकप्रियता का मानदंड नहीं है। काफ़ी लम्बे अन्तराल के बाद दूसरे संस्करण की नौबत आई है, यहाँ तक की उसके लिए पांडुलिपि तैयार करते हुए मुझे मानो नए सिरे से उसक रचनाओं से परिचय प्राप्त करना पड़ा है! और यह तो है ही कि इस संग्रह पर ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा से लोगों का ध्यान इसकी ओर आकृष्ट हुआ है जो यों शायद कविता में भी विशेष रुचि न रखते हों। सच कहूँ तो स्वयं मुझे पुरस्कार की घोषणा से आश्चर्य हुआ और मैंने एक बार पुस्तक उलट-पुलट कर देखी--इस कुतूहल से कि इसमें कौन-सी बात हो सकती है जो पुरस्कार के निर्णायकों को प्रभावित करे! <br> <br>
इस बात को स्वीकार करने का आशय यह नहीं है कि पाठक कविताओं को उन के आतन्यतिक मूल्य की दृष्टि से न देखें--मैं ऊपर कह ही चुका कि इनमें से कई कविताएँ उस जीवन-दृष्टि को अभिव्यक्त करती हैं जो आज भी मेरे कर्म-जीवन की प्रेरणा है। पाठक से मेरा यही अनुरोध होगा कि वे इन कविताओं को ध्यान में रखें। पुस्तक पुरस्कृत हुई इससे एक हद तक--लेकिन एक हद तक ही-- यह परिणाम निकाला जा सकता है कि शायद उस जीवन-दृष्टि को भी कुछ अधिकारी अथवा पारखी समीक्षकों का अनुमोदन मिला है और यह कौन नहीं चाहेगा-- कवि अथवा काव्य-रसिक-- कि जो उसे अच्छा लगता है उसे ऐसे व्यक्तियों का भी अनुमोदन प्राप्त हो! <br> <br>
कविताएँ आपके सामने हैं। इससे आगे वे ही प्रासंगिक हैं-- कवि नहीं। <br><br>
'''अज्ञेय'''<br> <br>
अक्षय तृतीया, स.२०३६
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