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 लाखों अरमान थे काग़ज़ पे, निकाले कितने ख़ूनेखूने-दिल से जो लिखे ख़त वो, संभाले कितने
आपसे हो तो करें, हम से तो होगा न शुमार
उजले दिल कितने यहाँ, और हैं काले, कितने
ख़्वाब दौलत के यूँ ही पूरे नहीं तूने किये
मुँह से मुफ़लिस के भी छीने हैं निवाले कितने
तीरगी में है घिरी ऐसे हयाते-फानी मुझसे कतरा इक अयोध्या के निकलते लिए क्यूँ हैं उजाले कितनेपरेशाँ दोनों  शे'रगोई में हूँ मैं अदना सा शायर लेकिन लफ़्ज़ तनक़ीद के यारों ने उछाले मस्जिदें और भी हैं, और शिवाले कितने
मुश्किलें रेत की मानिन्द फिसल जाती हैं
अक्ल की चाबी ने वा कर दिए ताले कितने
शे'र तो शे'र हैं पहुँचेंगे सभी रूहों तकतीरगी में है घिरी ऐसे हयाते - फ़ानी ज़िन्दा मुझसे कतरा के निकलते हैं ज़ह्न में लोगों के मक़ाले उजाले कितने
इक अयोध्या के लिए, क्यूँ बे-असर हो नहीं सकते कभी अशआर मेरे यूँ तो शायर हैं परेशाँ दोनों बहुत लखनऊ वाले कितने मस्जिदें और भी शे'र तो शे'र हैं, और शिवाले पहुंचेंगे सभी रूहों तक ज़िंदा हैं ज़ह्न में लोगों के मक़ाले कितने  फ़िक्र मंज़िल पे पहुँचने की है सबको इतनी किसको फ़ुरसत है गिने पाँव में छाले कितने  शे'रगोई में हूँ मैं अदना सा शायर लेकिन लफ़्ज़ तनक़ीद के यारों ने उछाले कितने
अब तो मजमूए की तू, शक्ल इन्हें दे दे 'रक़ीब'तेरी ग़ज़लों को संभालेंगे रिसाले कितने
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