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|रचनाकार=सूरदास
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<poem>
वे हरि सकल ठौर के बासी।
पूरन ब्रह्म अखंडित मंडित, पंडित मुनिनि बिलासी॥
सप्त पताल ऊरध अध पृथ्वी, तल नभ बरुन बयारी।
अभ्यंतर दृष्टी देखन कौ, कारन रूप मुरारी॥
मन बुधि चित्त अहंकार दसेंद्रिय, प्रेरक थंभनकारी।
ताकैं काज वियोग बिचारत, ये अबला-ब्रजनारी॥
जाकौ जैसो रूप मन रुचै, सौ अपबस करि लीजै।
आसन बेसन ध्यान धारना, मन आरोहन कीजै॥
षट दल अठ द्वादस दल निरमल, अजपा जाप जपाली।
त्रिकुटी संगम ब्रह्म द्वार भिदि, यौं मिलिहैं बनमाली॥
एकादस गीता श्रुति साखी, जिहि बिधि मुनि समुझाए॥
ते सँदेस श्रीमुख गोपिनि कौ, सूर सु मधुप सुनाए॥1॥
ऊधौ हमरी सौं तुम जाहु।
यह गोकुल पूनौ कौ चंदा, तुम ह्वै आए राहु॥
ग्रह के ग्रसे गुसा परगास्यौ, अब लौं करि निरबाहु।
सब रस लै नँदलाल सिधारे , तुम पठए बड़ साहु॥
जोग बेचि कै तंदुल लीजै, बीच बसेरे खाहु।
सूरदास जबहीं उठी जैहौ, मिटिहै मन कौ दाहू॥2॥
वे हरि सकल ठौर के बासी ।<br>पूरन ब्रह्म अखंडित मंडित, पंडित मुनिनि बिलासी ॥<br>सप्त पताल ऊरध अध पृथ्वी, तल नभ बरुन बयारी ।<br>अभ्यंतर दृष्टी देखन कौ, कारन रूप मुरारी ॥<br>ऊधौ मौन साधि रहे।जोग कहि पछितात मन बुधि चित्त अहंकार दसेंद्रिय, प्रेरक थंभनकारी ।<br>ताकैं काज वियोग बिचारत, ये अबला-ब्रजनारी ॥<br>जाकौ जैसो रूप मन रुचै, सौ अपबस करि लीजै ।<br>बहुरि कछु न कहे॥आसन बेसन ध्यान धारनास्याम कौं यह नहीं बूझै, मन आरोहन कीजै ॥<br>अतिहि रहे खिसाइ।षट दल अठ द्वादस दल निरमलकहा मैं कहि-कहि लजानी, अजपा जाप जपाली ।<br>नार रह्यौ नवाइ॥त्रिकुटी संगम ब्रह्म द्वार भिदिप्रथम ही कहि बचन एकै, यौं मिलिहैं बनमाली ॥<br>रह्यौ गुरु करि मानि।एकादस गीता श्रुति साखीसूर प्रभु मोकौ पठायौ, जिहि बिधि मुनि समुझाए ॥<br>ते सँदेस श्रीमुख गोपिनि कौ, सूर सु मधुप सुनाए ॥1॥ <br><br>यहै कारन जानि॥3॥
ऊधौ हमरी सौं मधुकर भली करी तुम जाहु ।<br>आए।यह गोकुल पूनौ कौ चंदावै बातैं कहि कहि या दुख मैं, तुम ह्वै आए राहु ॥<br>ग्रह ब्रज के ग्रसे गुसा परगास्यौ, अब लौं करि निरबाहु ।<br>लोग हँसाए।सब रस लै नँदलाल सिधारे मोर मुकुट मुरली पीतांबर, तुम पठए बड़ साहु ॥<br>पठवहु सौंज हमारी।जोग बेचि कै तंदुल आपुन जटाजूट, मुद्रा धरि, लीजैभस्म अधारी॥कौन काज बृंदावन कौ, बीच बसेरे खाहु ।<br>सुख दही भात की छाक।सूरदास जबहीं उठी जैहौअब वै स्याम कूबरी दोऊ, मिटिहै मन बने एक ही ताक॥वै प्रभु बड़े सखा तुम उनके, जिनकै सुगम अनीति।या जमुना जल कौ दाहू ॥2॥<br><br>सुभाव यह, सूर बिरह की प्रीति॥4॥
ऊधौ मौन साधि रहे ।<br>काहे कौं रोकत मारग सूधौ।जोग कहि पछितात मन-मनसुनहु मधुप निरगुन कंटक तैं, बहुरि कछु न कहे ॥<br>राजपंथ क्यौं रूधौं॥स्याम कौं यह नहीं बूझैकै तुम सिखि पठए हौ कुबिजा, अतिहि रहे खिसाइ ।<br>कह्यौ स्यामघनहूँ धौं।कहा मैं कहि-कहि लजानीवेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ, नार रह्यौ नवाइ ॥<br>जुवतिनि जोग कहूँ धौं॥प्रथम ही कहि बचन एकैताकौ कहा परेखौ कीजै, रह्यौ गुरु करि मानि ।<br>जानै छाँछ न दूधौ।सूर प्रभु मोकौ पठायौ, यहै कारन जानि ॥3॥ <br><br>सूर अक्रूर गयौ लै ब्याज निबेरत ऊधौ॥5॥
मधुकर भली करी ऊधौ कोउ नाहिं न अधिकारी।लै न जाहु यह जोग आपनौ, कत तुम आए ।<br>होत दुखारी॥वै बातैं कहि कहि या दुख मैंयह तौ बेद उपनिषद मत है, महा पुरुष ब्रतधारी।कम अबला अहीरि ब्रज के लोग हँसाए ।<br>मोर मुकुट मुरली पीतांबर-बासिनि, पठवहु सौंज हमारी ।<br>नाहीं परत सँभारी॥आपुन जटाजूटको है सुनत कहत हौ कासौं, मुद्रा धरि, लीजै भस्म अधारी ॥<br>कौन काज बृंदावन कौ, सुख दही भात की छाक ।<br>कथा बिस्तारी।अब वै सूर स्याम कूबरी दोऊकैं संग गयौ मन, बने एक ही ताक ॥<br>वै प्रभु बड़े सखा तुम उनके, जिनकै सुगम अनीति।<br>या जमुना जल कौ सुभाव यह, सूर बिरह की प्रीति ॥4॥ <br><br>अहि काँचुली उतारी॥6॥
काहे कौं रोकत मारग सूधौ ।<br>वै बातैं जमुना-तीर की। सुनहु मधुप निरगुन कंटक तैंकबहुँक सुरति करत हैं मधुकर, राजपंथ क्यौं रूधौं ॥<br>हरन हमारे चीर की॥कै तुम सिखि पठए हौ कुबिजालीन्हे बसन देखि ऊँचे द्रुम, कह्यौ स्यामघनहूँ धौं ।<br>रबकि चढँन बलबीर की।वेद पुरान सुमृति देखि-देखि सब ढूँढ़ौसखी पुकारतिं, जुवतिनि जोग कहूँ धौं ॥<br>अधिक जुड़ाई नीर की॥ताकौ कहा परेखौ कीजैदोउ हाथ जोरि करि माँगैं, जानै छाँछ न दूधौ।<br>ध्वाई नंद अहीर की।सूर सूर अक्रूर गयौ लै ब्याज निबेरत ऊधौ ॥5॥ <br><br>सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत हैं पर पीर की॥7॥
ऊधौ कोउ नाहिं प्रेम अधिकारी ।<br>रुकत हमारे बूतैं।लै न जाहु यह जोग आपनौकिहिं गयंद बाँध्यौ सुनि मधुकर, कत तुम होत दुखारी ॥<br>पदुम नाल के काँचे सूतैं?यह तौ बेद उपनिषद मत हैसोवत मनसिज आनि जगायौ, महा पुरुष ब्रतधारी ।<br>पठै सँदेस स्याम के दूतैं।कम अबला अहीरि ब्रजबिरह-बासिनिसमुद्र सुखाइ कौन बिधि, नाहीं परत सँभारी ॥<br>रंचक जोग अगिनि के लूतैं॥को है सुनत कहत हौ कासौंसुफलक सुत अरु तुम दोऊ मिलि, कौन कथा बिस्तारी ।<br>लीजै मुकुति हमारे हूतैं।चाहतिं मिलन सूर स्याम कैं संग गयौ मनके प्रभु कौं, अहि काँचुली उतारी ॥6॥ <br><br>क्यौं पतियाहिं तुम्हारे धूतैं॥8॥
वै बातैं जमुना-तीर की । <br>ऊधौ सुनहु नैकु जो बात।कबहुँक सुरति करत हैं मधुकरअबलनि कौं तुम जोग सिखावत, हरन हमारे चीर की ॥<br>कहत नहीं पछितात॥लीन्हे बसन देखि ऊँचे द्रुमज्यौं ससि बिना मलीन कुमुदनी, रबकि चढँन बलबीर की ।<br>रबि बिनुहीं जलजात।देखित्यौं हम कमलनैंन बिनु देखे, तलफि-देखि सब सखी पुकारतिंतलफि मुरझात॥जिन स्रवननि मुरली सुर अँचयौं, अधिक जुड़ाई नीर की ॥<br>मुद्रा सुनत डरात।दोउ हाथ जोरि करि माँगैंजिन अधरनि अमृत फल चाख्यौ, ध्वाई नंद अहीर की ।<br>ते क्यौं कटु फल खात॥कुंकुम चंदन घसि तन लावतं, तिहिं न बिभूति सुहात।सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत बिनु हम यों हैं पर पीर की ॥7॥ <br><br>, ज्यौं तरु जीरन पात॥9॥
प्रेम न रुकत हमारे बूतैं ।<br>ऊधौ जोग हम नाहीं।किहिं गयंद बाँध्यौ सुनि अबला सार-ज्ञान कह जानैं, कैसैं ध्यान धराहीं॥तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं।ऐसी कथा कपट की मधुकर, पदुम नाल के काँचे सूतैं ?<br>हमतैं सुनी न जाहीं॥सोवत मनसिज आनि जगायौस्रवन चीरि सिर जटा बँधाबहु, पठै सँदेस स्याम के दूतैं ।<br>ये दुख कौन समाहीं।चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह-समुद्र सुखाइ कौन बिधि, रंचक जोग अगिनि के लूतैं ॥<br>अनल अति दाहीं॥सुफलक सुत अरु तुम दोऊ मिलिजोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, लीजै मुकुति हमारे हूतैं ।<br>सो तो है अप माहीं।चाहतिं मिलन सूर के प्रभु कौंसूरस्याम तैं न्यारी न पल-छिन , क्यौं पतियाहिं तुम्हारे धूतैं ॥8॥<br><br> ज्यौं घट तै परछाहीं॥10॥
ऊधौ सुनहु नैकु जो बात ।<br>हम तौ नंद-घोष के बासी।अबलनि कौं तुम जोग सिखावतनाम गुपाल जाति कुल गोपक, कहत नहीं पछितात ॥<br>गोप गुपाल उपासी॥ज्यौं ससि बिना मलीन कुमुदनीगिरवर धारी गोधन चारी, रबि बिनुहीं जलजात ।<br>बृंदावन अभिलाषी।त्यौं हम कमलनैंन बिनु देखेराजा नंद जसोदा रानी, तलफि-तलफि मुरझात ॥<br>सजल नदी जमुना सी॥जिन स्रवननि मुरली सुर अँचयौंमीत हमारे परम मनोहर, मुद्रा सुनत डरात ।<br>जिन अधरनि अमृत फल चाख्यौ, ते क्यौं कटु फल खात ॥<br>कुंकुम चंदन घसि तन लावतं, तिहिं न बिभूति सुहात ।<br>कमलनैन सुख रासी।सूरदास -प्रभु बिनु हम यों हैंकहौं कहाँ लौं, ज्यौं तरु जीरन पात ॥9॥ <br><br>अष्ट महा-सिधि दासी॥11॥
यह गोकुल गोपाल उपासी।जे गाहक निर्गुन के ऊधौ जोग हम नाहीं ।<br>अबला सार, ते सब बसत ईस-ज्ञान कह जानैं, कैसैं ध्यान धराहीं ॥<br>पुर कासी॥तेई मूँदन नैन कहत हौ, जद्यपि हरि मूरति जिन माहीं ।<br>ऐसी कथा कपट की मधुकरहम तजी अनाथ करि , हमतैं सुनी न जाहीं ॥<br>तदपि रहतिं चरननि रस रासी।स्रवन चीरि सिर जटा बँधाबहुअपनी सीतलता नहिं छाँड़त, ये दुख कौन समाहीं ।<br>चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरहजद्यपि बिधु भयौ राहु-अनल अति दाहीं ॥<br>गरासी॥जोगी भ्रमत जाहि लगि भूलेकिहिं अपराध जोग लिखि पठवत, सो तो है अप माहीं ।<br>प्रेम भगति तैं करत उदासी।सूरस्याम तैं न्यारी न पल-छिन सूरदास ऐसी को बिरहनि, ज्यौं घट तै परछाहीं ॥10॥ <br><br>माँगि मुक्ति छाँड़ै गुन रासी॥12॥
हम तौ नंद-घोष के बासी ।<br>ऐसौ सुनियत द्वै बैसाख।नाम गुपाल जाति कुल गोपकदेखति नहीं ब्यौंत जीवे कौ, गोप गुपाल उपासी ॥<br>जतन करौ कोउ लाख॥गिरवर धारी गोधन चारीमृगमद मलय कपूर कुमकुमा, बृंदावन अभिलाषी ।<br>केसर मलियै साख।राजा नंद जसोदा रानीजरत अगिनि मैं ज्यौं घृत नायौ, सजल नदी जमुना सी ॥<br>तन जरि ह्वै है राख॥मीत हमारे परम मनोहरता ऊपर लिखि जोग पठावत, कमलनैन सुख रासी ।<br>खाहु नीम तजि दाख।सूरदास-प्रभु कहौं कहाँ लौंऊधौ की बतियाँ, अष्ट महा-सिधि दासी ॥11॥<br><br>सब उड़ि बैठीं ताख॥13॥
यह गोकुल गोपाल उपासी ।<br>इहिं बिधि पावस सदा हमारैं।जे गाहक निर्गुन के ऊधौपूरब पवन स्वास उर ऊरध, ते सब बसत ईस-पुर कासी ॥<br>आनि मिले इकठारैं॥जद्यपि हरि हम तजी अनाथ करि बादर स्याम सेत नैननि मैं, तदपि रहतिं चरननि रस रासी ।<br>बरसि आँसु जल ढ़ारैं।अपनी सीतलता नहिं छाँड़तअरुन प्रकास पलक दुति दामिनि, जद्यपि बिधु भयौ राहु-गरासी ॥<br>गरजनि नाम पियारैं॥किहिं अपराध जोग लिखि पठवतजातक दादुर मोर प्रगट ब्रज, प्रेम भगति बसत निरंतर धारैं।ऊधव ये तब तैं करत उदासी ।<br>अटके ब्रज, स्याम रहे हित टारैं॥सूरदास ऐसी को बिरहनिकहिऐ काहि सुनै कत कोऊ, माँगि मुक्ति छाँड़ै गुन रासी ॥12॥ <br><br>या ब्रज के ब्यौहारैं।तुमही सौं कहि-कहि पछितानी, सूर बिरह के धारैं॥14॥
ऐसौ सुनियत द्वै बैसाख ।<br>ऊधौ कोकिल कूजत कानन।देखति नहीं ब्यौंत जीवे कौतुम हमकौं उपदेस करत हौ, जतन करौ कोउ लाख ॥<br>भस्म लगावन आनन॥मृगमद मलय कपूर कुमकुमाऔरौ सिखी सखा सँग लै लै, केसर मलियै साख ।<br>टेरत चढ़े पखानन।जरत अगिनि मैं ज्यौं घृत नायौबहुरौ आइ पपीहा कैं मिस, तन जरि ह्वै है राख ॥<br>मदन हनत निज बानन॥ता ऊपर लिखि हमतौ निपट अहीरि बावरी, जोग पठावतदीजिऐ जानन।कहा कथत मासी के आगैं, खाहु नीम तजि दाख ।<br>जानत नानी नानन॥सूरदास ऊधौ की बतियाँतुम तौ हमैं सिखावन आए, जोग होइ निरवानन।सूर मुक्ति कैसैं पूजति है, सब उड़ि बैठीं ताख ॥13॥ <br><br>वा मुरली के तानन॥15॥
इहिं बिधि पावस सदा हमारैं ।<br>हमतैं हरि कबहूँ न उदास।पूरब पवन स्वास उर ऊरधरास खिलाइ पिलाइ अधर रस, आनि मिले इकठारैं ॥<br>क्यौं बिसरत ब्रज बास॥बादर स्याम सेत नैननि मैंतुमसौं प्रेम कथा कौ कहिबौ, बरसि आँसु जल ढ़ारैं ।<br>मनौ काटिबौ घास।अरुन प्रकास पलक दुति दामिनिबहिरौ तान-स्वाद कह जानै, गरजनि नाम पियारैं ॥<br>गूँगौ बात मिठास॥जातक दादुर मोर प्रगट ब्रजसुनि री सखी बहुरि हरि ऐहैं, बसत निरंतर धारैं ।<br>वह सुख वहै बिलास।ऊधव ये तब तैं अटके ब्रज, स्याम रहे हित टारैं ॥<br>कहिऐ काहि सुनै कत कोऊ, या ब्रज के ब्यौहारैं ।<br>तुमही सौं कहि-कहि पछितानीसूरदास ऊधौ अब हमकौं, सूर बिरह के धारैं ॥ 14॥ <br><br>भाए तेरहौं मास॥16॥
ऊधौ कोकिल कूजत कानन ।<br>आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी।तुम हमकौं उपदेस करत हौखेप लादि गुरु ज्ञान जोग की, भस्म लगावन आनन ॥<br>ब्रज मैं आनि उतारी॥औरौ सिखी सखा सँग लै लैफाटक दै कै हाटक माँगत, टेरत चढ़े पखानन ।<br>भोरौ निपट सुधारी।बहुरौ आइ पपीहा कैं मिसधुरही तैं खौटौ खायौ है, मदन हनत निज बानन ॥<br>लिये फिरत सिर भारी॥हमतौ निपट अहीरि बावरीइनकैं कहे कौन डहकावे, जोग दीजिऐ जानन ।<br>ऐसी कौन अनारी।कहा कथत मासी के आगैंअपनौं दूध छाँड़ि को पीवै, जानत नानी नानन ॥<br>खारे कूप कौ बारी॥तुम तौ हमैं सिखावन आएऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तै, जोग होइ निरवानन ।<br>बेगि गहरु जनि लावहु।सूर मुक्ति कैसैं पूजति हैमुख मागौ पैहौ सूरज प्रभु, वा मुरली के तानन ॥15॥ <br><br>साहुहिं आनि दिखावहु॥17॥
हमतैं हरि कबहूँ न उदास ।<br>ऊधौ जोग कहा है कीजतु।रास खिलाइ पिलाइ अधर रसओढ़ियत है कि बिछैयत है, क्यौं बिसरत ब्रज बास ॥<br>किधौं खैयत है किधौं पीजतु॥तुमसौं प्रेम कथा कौ कहिबौकीधौं कछू खिलौना सुंदर, मनौ काटिबौ घास ।<br>की कछु भूषन नीकौ।बहिरौ तानहमरे नंद-स्वाद कह जानैनंदन जो चहियतु, गूँगौ बात मिठास ॥<br>मोहन जीवन जी कौ॥सुनि री सखी बहुरि तुम जु कहत हरि ऐहैंनिगुन निरंतर, वह सुख वहै बिलास ।<br>निगम नेति है रीति।सूरदास ऊधौ अब हमकौंप्रगट रूप की रासि मनोहर, क्यौं छाँड़े परतीति॥गाइ चरावन गए घोष तैं, अबहीं हैं फिरि आवत।सोई सूर सहाइ हमारे, भाए तेरहौं मास ॥16॥ <br><br>बेनु रसाल बजावत॥18॥
आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी ।<br>अपने स्वारथ के सब कोऊ।खेप लादि गुरु ज्ञान जोग कीचुप करि रहौ मधुप रस-लंपट, ब्रज मैं आनि उतारी ॥<br>तुम देखे अरु ओऊ॥फाटक दै कै हाटक माँगतजो कछु कह्यौ कह्यौ चाहत हौ, भोरौ निपट सुधारी ।<br>कहि निरवारौ सोऊ।धुरही तैं खौटौ खायौ हैअब मेरैं मन ऐसियै, लिये फिरत सिर भारी ॥<br>षटपद, होनी होउ सु होऊ॥इनकैं कहे कौन डहकावेतब कत रास रच्यौ वृंदावन, ऐसी कौन अनारी ।<br>जौ पै ज्ञान हुतोऊ।अपनौं दूध छाँड़ि को पीवैलीन्हे जोग फिरत जुवतिनि मैं, खारे कूप कौ बारी ॥<br>बड़े सुपत तुम दोऊ॥ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तैछुटि गयौ मान परेखौ रे अलि, बेगि गहरु जनि लावहु ।<br>हृदै हुतौ वह जोऊ।मुख मागौ पैहौ सूरज सूरदास प्रभुगोकुल बिसर्‌यौ, साहुहिं आनि दिखावहु ॥17॥ <br><br>चित चिंतामनि खौऊ॥19॥
ऊधौ जोग कहा है कीजतु ।<br>मधुकर प्रीति किये पछितानी।ओढ़ियत है कि बिछैयत हैहम जानी ऐसैंहि निबहैगी, किधौं खैयत है किधौं पीजतु ॥<br>उन कछु औरे ठानी॥कीधौं कछू खिलौना सुंदरवा मोहन कौं कौन पतीजै, की कछु भूषन नीकौ ।<br>बोलत मधुरी बानी।हमरे नंद-नंदन जो चहियतुहमकौं लिखि जोग पठावत, मोहन जीवन जी कौ ॥<br>आपु करत रजधानी॥तुम जु कहत सूनी सेज सुहाइ न हरि निगुन निरंतरबिनु, निगम नेति है रीति ।<br>जागति रैनि बिहानी।प्रगट रूप की रासि मनोहरजब तैं गवन कियौ मधुबन कौं, क्यौं छाँड़े परतीति ॥<br>नैननि बरषत पानी॥गाइ चरावन गए घोष तैंकहियौ जाइ स्याम सुंदर कौं, अबहीं हैं फिरि आवत ।<br>अंतरगत की जानी।सोई सूर सहाइ हमारेसूरदास प्रभु मिलि कै बिछुरे, बेनु रसाल बजावत ॥18॥ <br><br>तातें भई दिवानी॥20॥
अपने स्वारथ के सब कोऊ ।<br>हमारैं हरि हारिल की लकरी।चुप करि रहौ मधुप रसमनक्रम वचन नंद-लंपटनंदन उर, तुम देखे अरु ओऊ ॥<br>यह दृड़ करि पकरी॥जो कछु कह्यौ कह्यौ चाहत हौजागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कहि निरवारौ सोऊ ।<br>कान्ह-कान्ह जक री।अब मेरैं मन ऐसियै, षटपद, होनी होउ सु होऊ ॥<br>तब कत रास रच्यौ वृंदावन, जौ पै ज्ञान हुतोऊ ।<br>लीन्हे सुनत जोग फिरत जुवतिनि मैंलागत है ऐसौ, बड़े सुपत तुम दोऊ ॥<br>ज्यौं करुई ककरी।छुटि गयौ मान परेखौ रे अलिसुतौ व्याधि हमकौं लै आए, हृदै हुतौ वह जोऊ ।<br>देखी सुनी न करी।सूरदास प्रभु गोकुल बिसर्‌यौयह तौ सूर नितहिं ले सौंपौ, चित चिंतामनि खौऊ ॥19॥ <br><br>जिनके मन चकरी॥21॥
मधुकर प्रीति किये पछितानी ।<br>हम जानी ऐसैंहि निबहैगीकहा होत जो हरि हित चित धरि, उन कछु औरे ठानी ॥<br>एक बार ब्रज आवते।वा मोहन तरसत ब्रज के लोग दरस कौं कौन पतीजै, बोलत मधुरी बानी ।<br>निरखि निरखि सुख पावते॥हमकौं लिखि जोग पठावतमुरली सब्द सुनावत सबहिनि, आपु करत रजधानी ॥<br>हरते तन की पीर।सूनी सेज सुहाइ न हरि बिनुमधुरे बचन बोलि अमृत मुख, जागति रैनि बिहानी ।<br>बिरहिनिं देते धीर॥जब तैं गवन कियौ मधुबन कौंसब मिलि जग गावत उनकौ, नैननि बरषत पानी ॥<br>हरष मानि उर आनत।कहियौ जाइ स्याम सुंदर कौंनासत चिन्ता ब्रज बनितनि की, अंतरगत जनम सुफल करि जानत।दुरी दुरा कौ खेल न कोऊ, खेलत है ब्रज महियाँ।बाल दसा लपटाइ गहत हे, हँस-हँसि हमरी बहिंयाँ॥हम दासी बिनु मोल की जानी ।<br>उनकी, हमहिं जु चित्त बिसारी।सूरदास प्रभु मिलि कै बिछुरेइत तें उन हरि रहे अब तौ, तातें कुबिजा भई दिवानी ॥20॥ <br><br>पियारी॥हिय मैं बातैं समुझि-समुझि कै, लोचन भरि-भरि आए।सूर सनेही स्याम प्रीति के, ते अब भए पराए॥22॥
हमारैं हरि हारिल की लकरी ।<br>मधुकर आपुन होहिं बिराने।मनक्रम वचन नंद-नंदन उरबाहर हेत हितू कहवावत, यह दृड़ करि पकरी ॥<br>भीतर काज सयाने॥जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री ।<br>सुनत जोग लागत है ऐसौज्यौं सुक पिंजर माहिं उचारत, ज्यौं करुई ककरी ।<br>ज्यौं कहत बखाने।सुतौ व्याधि हमकौं लै आएछुटत हीं उड़ि मिलै अपुन कुल, देखी सुनी प्रीति करी ।<br>पल ठहराने॥यह तौ सूर नितहिं ले सौंपौ, जिनके जद्यपि मन चकरी ॥21॥<br><br>नहिं तजत मनोहर, तद्यपि कपटी जाने।सूरदास प्रभु कौन काज कौं, माखी मधु लपटाने॥23॥
कहा होत जो हरि हित चित धरितैं भलौ सुपति सीता कौ।जाकै बिरह जतन ए कीन्हे, एक बार ब्रज आवते ।<br>सिंधु कियौ बीता कौ॥तरसत ब्रज के लोग दरस कौंजाकै बिरह जतन ए कीन्हे, निरखि निरखि सुख पावते ॥<br>सिंधु कियौ बीता कौ॥मुरली सब्द सुनावत सबहिनिलंका जारि सकल रिपु मारे, हरते तन की पीर ।<br>मधुरे बचन बोलि अमृत देख्यौ मुख, बिरहिनिं देते धीर ॥<br>पुनि ताकौ।सब मिलि जग गावत उनकौदूत हाथ उन लिखि जु पठायौ, हरष मानि उर आनत ।<br>ज्ञान कह्यौ गीता कौ॥नासत चिन्ता ब्रज बनितनि कीतिनकौ कहा परेखौ कीजै, जनम सुफल करि जानत ।<br>कुबिजा के मीता कौ।दुरी दुरा कौ खेल न कोऊचढ़ै सेज सातौं सुधि बिसरी, खेलत है ब्रज महियाँ ।<br>ज्यौं पीता चीता कौ॥बाल दसा लपटाइ गहत हेकरि अति कृपा जोग लिखि पठयौ, हँस-हँसि हमरी बहिंयाँ ॥<br>देखि डराईँ ताकौ।हम दासी बिनु मोल की उनकी, हमहिं जु चित्त बिसारी ।<br>इत तें उन हरि रहे अब तौ, कुबिजा भई पियारी ॥<br>हिय मैं बातैं समुझि-समुझि कै, लोचन भरि-भरि आए ।<br>सूर सनेही स्याम सूरजदास प्रीति केकह जानैं, ते अब भए पराए ॥22॥ <br><br>लोभी नवनीता कौ॥24॥
मधुकर आपुन होहिं बिराने ।<br>ऊधौ क्यौं बिसरत वह नेह।बाहर हेत हितू कहवावतहमरैं हृदय आनि नँदनंदन, भीतर काज सयाने ॥<br>रचि-रचि कीन्हे गेह॥ज्यौं सुक पिंजर माहिं उचारतएक दिवस गई गाइ दुहावन, ज्यौं ज्यौं कहत बखाने ।<br>वहाँ जु बरष्यौ मेह।छुटत हीं उड़ि मिलै अपुन कुललिए उढ़ाइ कामरी मोहन, प्रीति न पल ठहराने ॥<br>निज करि मानी देह॥जद्यपि मन नहिं तजत मनोहर, तद्यपि कपटी जाने ।<br>अब हमकौं लिखि-लिखि पठवत हैं जोग जुगुति तुम लेह।सूरदास प्रभु बिरहिनि क्यौं जीवैं कौन काज कौं, माखी मधु लपटाने ॥23॥<br><br>सयानप एहु॥25॥
हरि तैं भलौ सुपति सीता कौ ।<br>ऊधौ मन माने की बात।जाकै बिरह जतन ए कीन्हेदाख छुहारा छाँड़ि अमृत-फल, सिंधु कियौ बीता कौ ॥<br>विषकीरा विष खात॥जाकै बिरह जतन ए कीन्हेज्यौं चकोर कौं देइ कपूर कोउ, सिंधु कियौ बीता कौ ॥<br>तजि अंगार अघात।लंका जारि सकल रिपु मारेमधुप करत घर कोरि काठ मैं, देख्यौ मुख पुनि ताकौ ।<br>दूत हाथ उन लिखि जु पठायौ, ज्ञान कह्यौ गीता कौ ॥<br>तिनकौ कहा परेखौ कीजै, कुबिजा बँधत कमल के मीता कौ ।<br>पात॥चढ़ै सेज सातौं सुधि बिसरी, ज्यौं पीता चीता कौ ॥<br>करि अति कृपा जोग लिखि पठयौपतंग हित जानि आपनौ, देखि डराईँ ताकौ ।<br>दीपक सौं लपटात।सूरजदास प्रीति कह जानैंसूरदास जाकौ मन जासौं, लोभी नवनीता कौ ॥24॥ <br><br>सोई ताहि सुहात॥26॥
ऊधौ क्यौं बिसरत वह नेह ।<br>इहिं डर बहुरि न गोकुल आए।हमरैं हृदय आनि नँदनंदनसुनि री सखी हमारी करनी, रचि-रचि कीन्हे गेह ॥<br>समुझि मधुपुरी छाए॥एक दिवस गई गाइ दुहावनअधरातक तैं उठि सब बालक, वहाँ जु बरष्यौ मेह ।<br>मोहिं टेरैंगे आइ।लिए उढ़ाइ कामरी मोहनमातु पिता मौकौं पठवैंगे, निज करि मानी देह ॥<br>बनहिं चरावन गाइ॥अब हमकौं लिखिसूने भवन आइ रौकेंगी, दधि-लिखि पठवत हैं जोग जुगुति तुम लेह ।<br>चोरत नवनीत।सूरदास बिरहिनि क्यौं जीवैं कौन सयानप एहु ॥25॥ <br>पकरि जसोदा पै लै जैहैं, नाचहु गावहु गीत॥ग्वारिनि मोहिं बहुरि बाँधैगी, कैतव बचन सुनाइ।वै दुख सूर सुमिरि मन ही मन, बहुरि सहै को जाइ॥27॥
ऊधौ मन माने की बात ।<br>जौ कोउ बिरहिनि कौ दुख जानै। दाख छुहारा छाँड़ि अमृत-फलतौ तजि सगुन साँवरी मूरति, विषकीरा विष खात ॥<br>कत उपदेसै ज्ञानै॥ज्यौं कुमुद चकोर कौं देइ कपूर कोउमुदित बिधु निरखत, तजि अंगार अघात ।<br>कहा करै लै भानै।मधुप करत घर कोरि काठ मैंचातक सदा स्वाति कौ सेवक, बँधत कमल के पात ॥<br>दुखित होत बिनु पानै॥ज्यौं पतंग हित जानि आपनौभौंर, कुरंग काग कोइल कौं, दीपक सौं लपटात ।<br>कविजन कपट बखानैं।सूरदास जाकौ मन जासौंजौ सरबस दीजै, सोई ताहि सुहात ॥26॥ <br><br>कारै कृतहि न मानैं॥28॥
इहिं डर बहुरि न गोकुल आए ।<br>ऊधौ सुधि नाहीं या तन की।सुनि री सखी हमारी करनीजाइ कहौ तुम कित हौ भूले, समुझि मधुपुरी छाए ॥<br>हमऽब भईं बन-बन की॥अधरातक तैं उठि सब बालकइन बन ढ़ूँढ़ि सकल बन ढूँढ़े, मोहिं टेरैंगे आइ ।<br>बन बेली मधुबन की।मातु पिता मौकौं पठवैंगेहारी परीं बृंदावन ढूँढ़त, बनहिं चरावन गाइ ॥<br>सुधि न मिली मोहन की॥सूने भवन आइ रौकेंगीकिए बिचार उपचार न लागत, दधि-चोरत नवनीत ।<br>कठिन बिथा भइ मन की।पकरि जसोदा पै लै जैहैंसूरदास कोउ कहै स्याम सौं, नाचहु गावहु गीत ॥<br>ग्वारिनि मोहिं बहुरि बाँधैगी, कैतव बचन सुनाइ ।<br>वै दुख सूर सुमिरि मन ही मन, बहुरि सहै को जाइ ॥27॥ <br><br>सुरति करैं गोपिनि की॥29॥
जौ कोउ बिरहिनि कौ दुख जानै । <br>तौ तजि सगुन साँवरी मूरति, कत उपदेसै ज्ञानै ॥<br>कुमुद चकोर मुदित बिधु निरखत, कहा करै लै भानै ।<br>चातक सदा स्वाति कौ सेवक, दुखित होत बिनु पानै ॥<br>भौंर, कुरंग काग कोइल कौं, कविजन कपट बखानैं ।<br>सूरदास जौ सरबस दीजै, कारै कृतहि न मानैं ॥28॥ <br><br> ऊधौ सुधि नाहीं या तन की ।<br>जाइ कहौ तुम कित हौ भूले, हमऽब भईं बन-बन की ॥<br>इन बन ढ़ूँढ़ि सकल बन ढूँढ़े, बन बेली मधुबन की ।<br>हारी परीं बृंदावन ढूँढ़त, सुधि न मिली मोहन की ॥<br>किए बिचार उपचार न लागत, कठिन बिथा भइ मन की ।<br>सूरदास कोउ कहै स्याम सौं, सुरति करैं गोपिनि की ॥29॥ <br><br> लरिकाई की प्रेम कहौ अलि कैसैं छूटत । <br>छूटत। कहा कहौं ब्रजनाथ चरित, अंतरगति लूटत ॥<br>लूटत॥वह चितवनि वह चाल मनोहर वह मुसकानि मंद-धुनि गावनि ।<br>गावनि।नटवर-भेष नंद-नंदन कौ वह विनोद, वह बन तैं आवनि ॥<br>आवनि॥चरन कमल की सौंह करति हौं, यह संदेस मोहिं विष लागत ।<br>लागत।सूरदास पल मोहिं न बिसरति, मोहन मूरति सोवत जागत ॥30॥ <br>जागत॥30॥ <br/poem>
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