|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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'''द्वितीय सर्ग: सग हिलमिल'''
<font size=4>द्वितीय सर्ग: सगहिलमिल</font><br><br>कर उन्मत्त प्रेम के लेन–देन का मृदु–व्यापार। ज्ञात न किसको था अकबर की छिपी नीति का अत्याचार॥1॥
कर उन्मत्त प्रेम के <Br/>लेन–देन का मृदु–व्यापार। <Br/>ज्ञात न किसको था अकबर की <Br/>छिपी नीति का अत्याचार।।1।। <Br/><Br/>अहो¸ हमारी माँ–बहनों से <Br/>सजता था मीनाबाज़ार। <Br/>फैल गया था अकबर का वह <Br/>कितना पीड़ामय व्यभिचार।।2।। <Br/><Br/>व्यभिचार॥2॥ अवसर पाकर कभी विनय–नत¸ <Br/>कभी समद तन जाता था। <Br/>गरम कभी जल सा¸ पावक सा <Br/>कभी गरम बन जाता था।।3।। <Br/><Br/>था॥3॥ मानसिंह की फूफी से <Br/>अकबर ने कर ली थी शादी। <Br/>अहो¸ तभी से भाग रही है <Br/>कोसों हमसे आजादी।।4।। <Br/><Br/>आजादी॥4॥ हो उठता था विकल देखकर <Br/>मधुर कपोलों की लाली। <Br/>पीता था अiग्न–सा कलियों <Br/>के अधरों की मधुमय प्याली।।5।। <Br/><Br/>प्याली॥5॥ करता था वह किसी जाति की <Br/>कान्त कामिनी से ठनगन। <Br/>कामातुर वह कर लेता था <Br/>किसी सुंदरी का चुम्बन।।6।। <Br/><Br/>चुम्बन॥6॥ था एक समय कुसुमाकर का <Br/>लेकर उपवन में बाल हिरन। <Br/>वन छटा देख कुछ उससे ही <Br/>गुनगुना रही थी बैठ किरन।।7।। <Br/><Br/>किरन॥7॥ वह राका–शशि की ज्योत्स्ना सी <Br/>वह नव वसन्त की सुषमा सी। <Br/>बैठी बखेरती थी शोभा <Br/>छवि देख धन्य थे वन–वासी।।8।। <Br/><Br/>वन–वासी॥8॥ आँखों में मद की लाली थी¸ <Br/>गालों पर छाई अरूणाई। <Br/>कोमल अधरों की शोभा थी <Br/>विद्रुम–कलिका सी खिल आई।।9।। <Br/><Br/>आई॥9॥ तन–कान्ति देखने को अपलक <Br/>थे खुले कुसुम–कुल–नयन बन्द। <Br/>उसकी साँसों की सुरभि पवन <Br/>लेकर बहता था मन्द–मन्द।।10।। <Br/><Br/>मन्द–मन्द॥10॥ पट में तन¸ तन में नव यौवन <Br/>नव यौवन में छवि–माला थी। <Br/>छवि–माला के भीतर जलती <Br/>पावन–सतीत्व की ज्वाला थी।।11।। <Br/><Br/>थी॥11॥ थी एक जगह जग की शोभा <Br/>कोई न देह में अलंकार। <Br/>केवल कटि में थी बँधी एक <Br/>शोणित–प्यासी तीखी कटार।।12।। <Br/><Br/>कटार॥12॥ हाथों से सुहला सुहलाकर <Br/>नव बाल हिरन का कोमल–तन <Br/>विस्मित सी उससे पूछ रही <Br/>वह देख देख वन–परिवर्तन।।13।। <Br/><Br/>वन–परिवर्तन॥13॥ "कोमल कुसुमों में मुस्काता <Br/>छिपकर आनेवाला कौन? <Br/>बिछी हुई पलकों के पथ पर <Br/>छवि दिखलानेवाला कौन?।।14।। <Br/><Br/>॥14॥ बिना बनाये बन जाते वन <Br/>उन्हें बनानेवाला कौन? <Br/>कीचक के छिद्रों में बसकर <Br/>बीन बजाने वाला कौन?।।16।। <Br/><Br/>॥16॥ कल–कल कोमल कुसुम–कुंज पर <Br/>मधु बरसाने वाला कौन? <Br/>मेरी दुनिया में आता है <Br/>है वह आने वाला कौन है?।।16। <Br/>॥16। छुमछुम छननन रास मचाकर <Br/>बना रहा मतवाला कौन? <Br/>मुसकाती जिससे कलिका है <Br/>है वह किस्मत वाला कौन?।।17।। <Br/><Br/>॥17॥ बना रहा है मत्त पिलाकर <Br/>मंजुल मधु का प्याला कौन <Br/>फैल रही जिसकी महिमा है <Br/>है वह महिमावाला कौन?।।18।। <Br/><Br/>॥18॥ मेरे बहु विकसित उपवन का <Br/>विभव बढ़ानेवाला कौन? <Br/>विपट–निचय के पूत पदों पर <Br/>पुष्प चढ़ाने वाला कौन?।।19।। <Br/><Br/>॥19॥ फैलाकर माया मधुकर को <Br/>मुग्ध बनाने वाला कौन? <Br/>छिपे छिपे मेरे आँगन में <Br/>हँसता आनेवाला कौन?।।20।। <Br/><Br/>॥20॥ महक रहा है मलयानिल क्यों? <Br/>होती है क्यों कैसी कूक? <Br/>बौरे–बौरे आमों का है¸ <Br/>भाव और भाषा क्यों मूक।"।21।। <Br/><Br/>।21॥ वह इसी तरह थी प्रकृति–मग्न¸ <Br/>तब तक आया अकबर अधीर। <Br/>धीरे से बोला युवती से <Br/>वह कामातुर कम्पित–शरीर ।।22।। <Br/><Br/>॥22॥ "प्रेयसि! गालों की लाली में <Br/>मधु–भार भरा¸ मृदु प्यार भरा। <Br/>रानी¸ तेरी चल चितवन में <Br/>मेरे उर का संसार भरा।।23।। <Br/><Br/>भरा॥23॥ मेरे इन प्यासे अधरों को <Br/>तू एक मधुर चुम्बन दे दे। <Br/>धीरे से मेरा मन लेकर <Br/>धीरे से अपना मन दे दे"।।24।। <Br/><Br/>॥24॥ यह कहकर अकबर बढ़ा समय <Br/>उसी सती सिंहनी के आगे। <Br/>आगे उसके कुल के गौरव <Br/>पावन–सतीत्व उर के आगे।।25।। <Br/><Br/>आगे॥25॥ शिशोदिया–कुल–कन्या थी <Br/>वह सती रही पांचाली सी। <Br/>क्षत्राणी थी चढ़ बैठी <Br/>उसकी छाती पर काली सी।।26।। <Br/><Br/>सी॥26॥ कहा डपटकर – "बोल प्राण लूँ¸ <Br/>या छोड़ेगा यह व्यभिचार?" <Br/>बोला अकबर – "क्षमा करो अब <Br/>देवि! न होगा अत्याचार"।।27।। <Br/><Br/>॥27॥ जब प्रताप सुनता था ऐसी <Br/>सदाचार की करूण–पुकार। <Br/>रण करने के लिए म्यान से <Br/>सदा निकल पड़ती तलवार।।28।। <Br/>तलवार॥28॥ <Br/poem>