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|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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'''षोडश सर्ग: सगथी'''
<font size=4>षोडश सर्ग: सगथी</font><br><br>आधी रात अँधेरी तम की घनता थी छाई। कमलों की आँखों से भी कुछ देता था न दिखाई॥1॥
आधी रात अंधेरी <Br/>तम की घनता थी छाई। <Br/>कमलों की आंखों से भी <Br/>कुछ देता था न दिखाई।।1।। <Br/><Br/>पर्वत पर¸ घोर विजन में <Br/>नीरवता का शासन था। <Br/>गिरि अरावली सोया था <Br/>सोया तमसावृत वन था।।2।। <Br/><Br/>था॥2॥ धीरे से तरू के पल्लव <Br/>गिरते थे भू पर आकर। <Br/>नीड़ों में खग सोये थे <Br/>सन्ध्या को गान सुनाकर।।3।। <Br/><Br/>सुनाकर॥3॥ नाहर अपनी मांदों माँदों में <Br/>मृग वन–लतिका झुरमुट में। <Br/>दृग मूंद सुमन सोये थे <Br/>पंखुरियों के सम्पुट में।।4।। <Br/><Br/>में॥4॥ गाकर मधु–गीत मनोहर <Br/>मधुमाखी मधुछातों पर। <Br/>सोई थीं बाल तितलियां <Br/>मुकुलित नव जलजातों पर।।5।। <Br/><Br/>पर॥5॥ तिमिरालिंगन से छाया <Br/>थी एकाकार निशा भर। <Br/>सोई थी नियति अचल पर <Br/>ओढ़े घन–तम की चादर।।6।। <Br/><Br/>चादर॥6॥ आंखों आँखों के अन्दर पुतली <Br/>पुतली में तिल की रेखा। <Br/>उसने भी उस रजनी में <Br/>केवल तारों को देखा।।7।। <Br/><Br/>देखा॥7॥ वे नभ पर कांप काँप रहे थे¸ <Br/>था शीत–कोप कंगलों में। <Br/>सूरज–मयंक सोये थे <Br/>अपने–अपने बंगलों में।।8।। <Br/><Br/>में॥8॥ निशि–अंधियाली में निद्रित <Br/>मारूत रूक–रूक चलता था। <Br/>अम्बर था तुहिन बरसता <Br/>पर्वत हिम–सा गलता था।।9।। <Br/><Br/>था॥9॥ हेमन्त–शिशिर का शासन¸ <Br/>लम्बी थी रात विरह–सी। <Br/>संयोग–सदृश लघु वासर¸ <Br/>दिनकर की छवि हिमकर–सी।।10।। <Br/><Br/>हिमकर–सी॥10॥ निर्धन के फटे पुराने <Br/>पट के छिद्रों से आकर¸ <Br/>शर–सदृश हवा लगती थी <Br/>पाषाण–हृदय दहला कर।।11।। <Br/><Br/>कर॥11॥ लगती चन्दन–सी शीतल <Br/>पावक की जलती ज्वाला। <Br/>बाड़व भी कांप काँप रहा था <Br/>पहने तुषार की माला।।12।। <Br/><Br/>माला॥12॥ जग अधर विकल हिलते थे <Br/>चलदल के दल से थर–थर। <Br/>ओसों के मिस नभ–दृग से <Br/>बहते थे आंसू झर–झर।।13।। <Br/><Br/>आँसू झर–झर॥13॥ यव की कोमल बालों पर¸ <Br/>मटरों की मृदु फलियों पर¸ <Br/>नभ के आंसू आँसू बिखरे थे <Br/>तीसी की नव कलियों पर।।14।। <Br/><Br/>पर॥14॥ घन–हरित चने के पौधे¸ <Br/>जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸ <Br/>भिंग गये ओस के जल से <Br/>सरसों के पीत मुरेठे।।15।। <Br/><Br/>मुरेठे॥15॥ वह शीत काल की रजनी <Br/>कितनी भयदायक होगी। <Br/>पर उसमें भी करता था <Br/>तप एक वियोगी योगी।।16।। <Br/><Br/>योगी॥16॥ वह नीरव निशीथिनी में¸ <Br/>जिसमें दुनिया थी सोई। <Br/>निझर्र की करूण–कहानी <Br/>बैठा सुनता था कोई।।17।। <Br/><Br/>कोई॥17॥ उस निझर्र के तट पर ही <Br/>राणा की दीन–कुटी थी। <Br/>वह कोने में बैठा था¸ <Br/>कुछ वंकिम सी भृकुटी थी।।18।। <Br/><Br/>थी॥18॥ वह कभी कथा झरने की <Br/>सुनता था कान लगाकर। <Br/>वह कभी सिहर उठता था¸ <Br/>मारूत के झोंके खाकर।।19।। <Br/><Br/>खाकर॥19॥ नीहार–भार–नत मन्थर <Br/>निझर्र से सीकर लेकर¸ <Br/>जब कभी हवा चलती थी <Br/>पर्वत को पीड़ा देकर।।20।। <Br/><Br/>देकर॥20॥ तब वह कथरी के भीतर <Br/>आहें भरता था सोकर। <Br/>वह कभी याद जननी की <Br/>करता था पागल होकर।।21।। <Br/><Br/>होकर॥21॥ वह कहता था वैरी ने <Br/>मेरे गढ़ पर गढ़ जीते। <Br/>वह कहता रोकर¸ मा माँ की <Br/>अब सेवा के दिन बीते।।22।। <Br/><Br/>बीते॥22॥ यद्यपि जनता के उर में <Br/>मेरा ही अनुशासन है¸ <Br/>पर इंच–इंच भर भू पर <Br/>अरि का चलता शासन है।।23।। <Br/><Br/>है॥23॥ दो चार दिवस पर रोटी <Br/>खाने को आगे आई। <Br/>केवल सूरत भर देखी <Br/>फिर भगकर जान बचाई।24।। <Br/><Br/>बचाई।24॥ अब वन–वन फिरने के दिन <Br/>मेरी रजनी जगने की। <Br/>क्षण आंखों आँखों के लगते ही <Br/>आई नौबत भगने की।।25।। <Br/><Br/>की॥25॥ मैं बूझा रहा हूं हूँ शिशु को <Br/>कह–कहकर समर–कहानी। <Br/>बुद–बुद कुछ पका रही है <Br/>हा¸ सिसक–सिसककर रानी।।26।। <Br/><Br/>रानी॥26॥ आंसू–जल आँसू–जल पोंछ रही है <Br/>चिर क्रीत पुराने पट से। <Br/>पानी पनिहारिन–पलकें <Br/>भरतीं अन्तर–पनघट से।।27।। <Br/><Br/>से॥27॥ तब तक चमकी वैरी–असि <Br/>मैं भगकर छिपा अनारी। <Br/>कांटों काँटों के पथ से भागी <Br/>हा¸ वह मेरी सुकुमारी।।28।। <Br/><Br/>सुकुमारी॥28॥ तृण घास–पात का भोजन <Br/>रह गया वहीं पकता ही। <Br/>मैं झुरमुट के छिद्रों से <Br/>रह गया उसे तकता ही।।29।। <Br/><Br/>ही॥29॥ चलते–चलते थकने पर <Br/>बैठा तरू की छाया में। <Br/>क्षण भर ठहरा सुख आकर <Br/>मेरी जर्जर–काया में।।30।। <Br/><Br/>में॥30॥ जल–हीन रो पड़ी रानी¸ <Br/>बच्चों को तृषित रूलाकर। <Br/>कुश–कण्टक की शय्या पर <Br/>वह सोई उन्हें सुलाकर।।31।। <Br/><Br/>सुलाकर॥31॥ तब तक अरि के आने की <Br/>आहट कानों में आई। <Br/>बच्चों ने आंखें आँखें खोलीं <Br/>कह–कहकर माई–माई।।32।। <Br/><Br/>माई–माई॥32॥ रव के भय से शिशु–मुख को <Br/>वल्कल से बांध बाँध भगे हम। <Br/>गह्वर में छिपकर रोने <Br/>रानी के साथ लगे हम।।33।। <Br/><Br/>हम॥33॥ वह दिन न अभी भूला है¸ <Br/>भूला न अभी गह्नर है। <Br/>सम्मुख दिखलाई देता <Br/>वह आंखों आँखों का झर–झर है।।34।। <Br/><Br/>है॥34॥ जब सहन न होता¸ उठता <Br/>लेकर तलवार अकेला। <Br/>रानी कहती –– कहती– न अभी है <Br/>संगर करने की बेला।।35।। <Br/><Br/>बेला॥35॥ तब भी न तनिक रूकता तो <Br/>बच्चे रोने लगते हैं। <Br/>खाने को दो कह–कहकर <Br/>व्याकुल होने लगते हैं।।36।। <Br/><Br/>हैं॥36॥ मेरे निबर्ल हाथों से <Br/>तलवार तुरत गिरती है। <Br/>इन आंखों आँखों की सरिता में <Br/>पुतली–मछली तिरती है।।37।। <Br/><Br/>है॥37॥ हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल <Br/>मेरा यह दुबर्ल तन है। <Br/>इसको कहते जीवन क्या¸ <Br/>यह ही जीवन जीवन है।।38।। <Br/><Br/>है॥38॥ अब जननी के हित मुझको <Br/>मेवाड़ छोड़ना होगा। <Br/>कुछ दिन तक मां माँ से नाता <Br/>हा¸ विवश तोड़ना होगा।।39।। <Br/><Br/>होगा॥39॥ अब दूर विजन में रहकर <Br/>राणा कुछ कर सकता है। <Br/>जिसकी गोदी में खेला¸ <Br/>उसका ऋण भर सकता है।।40।। <Br/><Br/>है॥40॥ यह कहकर उसने निशि में <Br/>अपना परिवार जगाया। <Br/>आंखों आँखों में आंसू आँसू भरकर <Br/>क्षण उनको गले लगाया।।41।। <Br/><Br/>लगाया॥41॥ बोला –्"तुम लोग यहीं से <Br/>मां माँ का अभिवादन कर लो। <Br/>अपने–अपने अन्तर में <Br/>जननी की सेवा भर लो।।42।। <Br/><Br/>लो॥42॥ चल दो¸ क्षण देर करो मत¸ <Br/>अब समय न है रोने को। <Br/>मेवाड़ न दे सकता है <Br/>तिल भर भी भू सोने को।।43।। <Br/><Br/>को॥43॥ चल किसी विजन कोने में <Br/>अब शेष बिता दो जीवन। <Br/>इस दुखद भयावह ज्वर की <Br/>यह ही है दवा सजीवन।्सजीवन।"।।44।। <Br/><Br/>॥44॥ सुन व्यथा–कथा रानी ने <Br/>आंचल आँचल का कोना धरकर¸ <Br/>कर लिया मूक अभिवादन <Br/>आंखों आँखों में पानी भरकर।।45।। <Br/><Br/>भरकर॥45॥ हां¸ कांप हाँ¸ काँप उठा रानी के <Br/>तन–पट का धागा–धागा। <Br/>कुछ मौन–मौन जब मां माँ से <Br/>अंचल पसार कर मांगा।।46।। <Br/><Br/>माँगा॥46॥ बच्चों ने भी रो–रोकर <Br/>की विनय वन्दना मां माँ की। <Br/>पत्थर भी पिघल रहा था <Br/>वह देख–देखकर झांकी।।47।। <Br/><Br/>झाँकी॥47॥ राणा ने मुकुट नवाया <Br/>चलने की हुई तैयारी। <Br/>पत्नी शिशु लेकर आगे <Br/>पीछे पति वल्कल–धारी।।48।। <Br/><Br/>वल्कल–धारी॥48॥ तत्काल किसी के पद का <Br/>खुर–खुर रव दिया सुनाई। <Br/>कुछ मिली मनुज की आहट¸ <Br/>फिर जय–जय की ध्वनि आई।।49। <Br/>आई॥49। राणा की जय राणा की <Br/>जय–जय राणा की जय हो। <Br/>जय हो प्रताप की जय हो¸ <Br/>राणा की सदा विजय हो।।50।। <Br/><Br/>हो॥50॥ वह ठहर गया रानी से <Br/>बोला – "मैं क्या हूं हूँ सोता? <Br/>मैं स्वप्न देखता हूं हूँ या <Br/>भ्रम से ही व्याकुल होता।।51।। <Br/><Br/>होता॥51॥ तुम भी सुनती या मैं ही <Br/>श्रुति–मधुर नाद सुनता हूं। <Br/>हूँ। जय–जय की मन्थर ध्वनि में <Br/>मैं मुक्तिवाद सुनता हूं।्हूँ।"।।52।। <Br/><Br/>॥52॥ तब तक भामा ने फेंकी <Br/>अपने हाथों की लकुटी। <Br/>'मेरे शिशु्' कह राणा के <Br/>पैरों पर रख दी त्रिकुटी।।53।। <Br/><Br/>त्रिकुटी॥53॥ आंसू आँसू से पद को धोकर <Br/>धीमे–धीमे वह बोला – <Br/>"यह मेरी सेवा्" कहकर <Br/>थ्ौलों थैलों के मुंह मुँह को खोला।।54।। <Br/><Br/>खोला॥54॥ खन–खन–खन मणिमुद्रा की <Br/>मुक्ता की राशि लगा दी। <Br/>रत्नों की ध्वनि से बन की <Br/>नीरवता सकल भगा दी।।55।। <Br/><Br/>दी॥55॥ "एकत्र करो इस धन से <Br/>तुम सेना वेतन–भोगी। <Br/>तुम एक बार फिर जूझो <Br/>अब विजय तुम्हारी होगी।।56।। <Br/><Br/>होगी॥56॥ कारागृह में बन्दी मां <Br/>माँ नित करती याद तुम्हें है। <Br/>तुम मुक्त करो जननी को <Br/>यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।्हैं।"।।57।। <Br/><Br/>॥57॥ वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी <Br/>लग गया हांफने हाँफने कहकर। <Br/>गिर पड़ी लार अवनी पर¸ <Br/>हा उसके मुख से बहकर।।58।। <Br/><Br/>बहकर॥58॥ वह कह न सका कुछ आगे¸ <Br/>सब भूल गया आने पर। <Br/>कटि–जानु थामकर बैठा <Br/>वह भू पर थक जाने पर।।59।। <Br/><Br/>पर॥59॥ राणा ने गले लगाया <Br/>कायरता धो लेने पर। <Br/>फिर बिदा किया भामा को <Br/>घुल–घुल कर रो लेने पर।।60।। <Br/><Br/>पर॥60॥ खुल गये कमल–कोषों के <Br/>कारागृह के दरवाजे। <Br/>उससे बन्दी अलि निकले <Br/>सेंगर के बाजे–बाजे।।61।। <Br/><Br/>बाजे–बाजे॥61॥ उषा ने राणा के सिर <Br/>सोने का ताज सजाया। <Br/>उठकर मेवाड़–विजय का <Br/>खग–कुल ने गाना गाया।।62।। <Br/><Br/>गाया॥62॥ कोमल–कोमल पत्तों में <Br/>फूलों को हंसते हँसते देखा। <Br/>खिंच गई वीर के उर में <Br/>आशा की पतली रेखा।।63।। <Br/><Br/>रेखा॥63॥ उसको बल मिला हिमालय का¸ <Br/>जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली। <Br/>वर मिला उसे प्रलयंकर का¸ <Br/>उसको चण्डी की शक्ति मिली।।64।। <Br/><Br/>मिली॥64॥ सूरज का उसको तेज मिला¸ <Br/>नाहर समान वह गरज उठा। <Br/>पर्वत पर झण्डा फइराकर <Br/>सावन–घन सा वह गरज उठा।।65। <Br/>उठा॥65॥ तलवार निकाली¸ चमकाई¸ <Br/>अम्बर में फेरी घूम–घूम। <Br/>फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸ <Br/>खरधार–दुधारी चूम–चूम।।66।। <Br/>चूम–चूम॥66॥<Br/poem>
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