|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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परिशिष्ट
यह एकलिंग का आसन है¸
इस पर न किसी का शासन है।
नित सिहक रहा कमलासन है¸
यह सिंहासन सिंहासन है॥1॥
<font size=4>परिशिष्ट</font><br><br>यह सम्मानित अधिराजों से¸ अर्चित है¸ राज–समाजों से। इसके पद–रज पोंछे जाते भूपों के सिर के ताजों से॥2॥
यह एकलिंग का आसन है¸ <Br/>इस पर न किसी का शासन है। <Br/>नित सिहक रहा कमलासन है¸ <Br/>यह सिंहासन सिंहासन है।।1।। <Br/><Br/>यह सम्मानित अधिराजों से¸ <Br/>अiर्चत है¸ राज–समाजों से। <Br/>इसके पद–रज पोंछे जाते <Br/>भूपों के सिर के ताजों से।।2।। <Br/><Br/>इसकी रक्षा के लिए हुई <Br/>कुबार्नी पर कुबार्नी है। <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।3।। <Br/><Br/>है॥3॥ खिलजी–तलवारों के नीचे <Br/>थरथरा रहा था अवनी–तल। <Br/>वह रत्नसिंह था रत्नसिंह¸ <Br/>जिसने कर दिया उसे शीतल।।4।। <Br/><Br/>शीतल॥4॥ मेवाड़–भूमि–बलिवेदी पर <Br/>होते बलि शिशु रनिवासों के। <Br/>गोरा–बादल–रण–कौशल से <Br/>उज्ज्वल पन्ने इतिहासों के।।5।। <Br/><Br/>के॥5॥ जिसने जौहर को जन्म दिया <Br/>वह वीर पद््मिनी पद्मिनी रानी है। <Br/>राणा¸ तू इसकी रक्षा कर¸ <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।6।। <Br/><Br/>है॥6॥ मूंजा के सिर के शोणित से <Br/>जिसके भाले की प्यास बुझी। <Br/>हम्मीर वीर वह था जिसकी <Br/>असि वैरी–उर कर पार जुझी।।7।। <Br/><Br/>जुझी॥7॥ प्रण किया वीरवर चूड़ा ने <Br/>जननी–पद–सेवा करने का। <Br/>कुम्भा ने भी व्रत ठान लिया। <Br/>रत्नों से अंचल भरने का।।8।। <Br/><Br/>का॥8॥ यह वीर–प्रसविनी वीर–भूमि¸ <Br/>रजपूती की रजधानी है। <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।9।। <Br/><Br/>है॥9॥ जयमल ने जीवन–दान किया। <Br/>पत्ता ने अर्पण प्रान किया। <Br/>कल्ला ने इसकी रक्षा में <Br/>अपना सब कुछ कुबार्न किया।।10।। <Br/><Br/>किया॥10॥ सांगा को अस्सी घाव लगे¸ <Br/>मरहमपट्टी थी आंखों आँखों पर। <Br/>तो भी उसकी असि बिजली सी <Br/>फिर गई छपाछप लाखों पर।।11।। <Br/><Br/>पर॥11॥ अब भी करूणा की करूण–कथा <Br/>हम सबको याद जबानी है। <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।12।। <Br/><Br/>है॥12॥ क्रीड़ा होती हथियारों से¸ <Br/>होती थी केलि कटारों से। <Br/>असि–धार देखने को उंगली <Br/>ऊँगली कट जाती थी तलवारों से।।13।। <Br/><Br/>से॥13॥ हल्दी–घाटी का भ्ौरव–पथ <Br/>भैरव–पथ रंग दिया गया था खूनों से। <Br/>जननी–पद–अर्चन किया गया <Br/>जीवन के विकच प्रसूनों से।।14।। <Br/><Br/>से॥14॥ अब तक उस भीषण घाटी के <Br/>कण–कण की चढ़ी जवानी है! <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।15।। <Br/><Br/>है॥15॥ भीलों में रण–झंकार अभी¸ <Br/>लटकी कटि में तलवार अभी। <Br/>भोलेपन में ललकार अभी¸ <Br/>आंखों आँखों में हैं अंगार अभी।।16।। <Br/><Br/>अभी॥16॥ गिरिवर के उन्नत–श्रृंगों पर <Br/>तरू के मेवे आहार बने। <Br/>इसकी रक्षा के लिए शिखर थे¸ <Br/>राणा के दरबार बने।।17।। <Br/><Br/>बने॥17॥ जावरमाला के गह्वर में <Br/>अब भी तो निर्मल पानी है। <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।18।। <Br/><Br/>है॥18॥ चूंड़ावत चूड़ावत ने तन भूषित कर <Br/>युवती के सिर की माला से। <Br/>खलबली मचा दी मुगलों में¸ <Br/>अपने भीषणतम भाला से।।19।। <Br/><Br/>से॥19॥ घोड़े को गज पर चढ़ा दिया¸ <Br/>्'मत मारो्मारो' मुगल–पुकार हुई। <Br/>फिर राजसिंह–चूंड़ावत राजसिंह–चूड़ावत से <Br/>अवरंगजेब की हार हुई।।20।। <Br/><Br/>हुई॥20॥ वह चारूमती रानी थी¸ <Br/>जिसकी चेरि बनी मुगलानी है। <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।21।। <Br/><Br/>है॥21॥ कुछ ही दिन बीते फतहसिंह <Br/>मेवाड़–देश का शासक था। <Br/>वह राणा तेज उपासक था <Br/>तेजस्वी था अरि–नाशक था।।22।। <Br/><Br/>था॥22॥ उसके चरणों को चूम लिया <Br/>कर लिया समर्चन लाखों ने। <Br/>टकटकी लगा उसकी छवि को <Br/>देखा कजन की आंखों ने।।23।। <Br/><Br/>आँखों ने॥23॥ सुनता हूं उस मरदाने की <Br/>दिल्ली की अजब कहानी है। <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।24।। <Br/><Br/>है॥24॥ तुझमें चूंड़ा चूड़ा सा त्याग भरा¸ <Br/>बापा–कुल का अनुराग भरा। <Br/>राणा–प्रताप सा रग–रग में <Br/>जननी–सेवा का राग भरा।।25।। <Br/><Br/>भरा॥25॥ अगणित–उर–शोणित से सिंचित <Br/>इस सिंहासन का स्वामी है। <Br/>भूपालों का भूपाल अभय <Br/>राणा–पथ का तू गामी है।।26।। <Br/><Br/>है॥26॥ दुनिया कुछ कहती है सुन ले¸ <Br/>यह दुनिया तो दीवानी है। <Br/>राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ <Br/>यह सिंहासन अभिमानी है।।27।। <Br/>है॥27॥ <Br/poem>