मानव मन तब ताहि कौन विधि भूलि सकत कब॥६२॥
वह मनुष्य कहिबे के योगन कबहुँ नीच नर।जन्म भूमि निज नेह नाहिं जाके उर अन्तर॥६३॥ जन्म भूमि हित के हित चिन्ता जा हिय नाहीं।तिहि जानौ जड़ जीव, प्रकट मानव, मन माहीं॥६४॥ जन्मभूमि दुर्दशा निरखि जाको हिय कातर।होय न अरु दुख मोचन मैं ताके निसि वासर॥६५॥ रहत न तत्पर जो, ताको मुख देखेहुँ पातक।नर पिशाच सों जननी जन्मभूमि को घातक॥६६॥ यदपि बस्यो संसार सुखद थल विविध लखाहीं।जन्म भूमि की पै छबि मन तें बिसरत नाहीं॥६७॥ पाय यदपि परिवर्तन बहु बनि गयो और अब।तदपि अजब उभरत मन में सुधि वाकी जब जब॥६८॥
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