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{{KKRachna
|रचनाकार=विजयदान देथा 'बिज्‍जी'
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|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्‍जी'
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<poem>
ऊषे!
जाग्रत कर चिर-प्रसुप्त प्यार मेरा
उस में नव-जीवन तो भर दो!

विहंगावलिनयों को नीड़ों से
कमल-उर में सुषुप्त मधुकर को
कुम्हलाए कलि-कुसुमों को चटक-चटक चटकारी दे
विमूर्छित तम में मानव को नव चेतनता भर
करती संचारित नव-नव प्राण!

मेरे श्वास-श्वास में सम्मिश्रित
रोम-रोम में अन्तर्हित ऊषे!
जर्जरित भग्न हृदय में सोये
प्रेम-शिशु को करुणा से प्रेरित कर
क्या न भरोगी उस में नव यौवन?
देखो यह चिर-सुषुप्त प्यार
सोया ही न रह जाये
इतनी तो दया भर लाकर
नव जागृति अंकित कर दो!
ऊषे!
जाग्रत कर चिर-प्रसुप्त प्यार मेरा
उस में नव जीवन तो भर दो!
</poem>