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कचहरी दीवान / प्रेमघन

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गड़बड़ लेखा करत सबन को धारि कसक मन॥१५५॥
कागद की कुछ ऐसी किल्ली राखत निज कर।
करै कोटि कोउ जतन पार नहिं पाय सकत पर॥१५६॥
मालिक बैठि जहाँ निरखत बहु काजनि गुरुतर।
करत निबोरो त्यों प्रजान को कलह परस्पर॥१५७॥
दूर ग्राम की प्रजा करम चारि गनहू सन।
अरज गरज सुनि देत उचित आदेस ततच्छन॥१५८॥
 
अन्य अनेकन काज विषय आदेस हेतु नत।
रहे प्रधानागमन मनुज जिहि ठौर अगोरत॥१५९॥
 
तहँ नहिं नर को नाम गयो गृह गिरि ह्वै पटपर।
मुद्रा कागद ठौर रहो सिकटी अरु कंकर॥१६०॥
</poem>
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