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15:10, 16 सितम्बर 2016 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप'
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<poem>
ज़िन्दगी ख़राब हो गई
और बे-हिसाब हो गई I
ख़ार-ख़ार हो गयी थी मैं
यकबयक गुलाब हो गई ?
ज़ुल्फ़ की घटा खुली अभी
हाय , महताब हो गई I
देखते ही खो गया , उसे
इस क़दर शराब हो गई I
दोसतों की बात मान ली
साँस भी अज़ाब हो गई I
कल तलक दबी-दबी रही
आज इन्कलाब हो गई I
शाईरों ने टांक दी चुनर
शाईरी , शबाब हो गई I
बा-शऊर दिल निकालती
माहरू , कसाब हो गई I
‘दीप’ यूँ जगा दिया गया
ख़ाब ख़ाब ख़ाब हो गई I
</poem>