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16:35, 16 सितम्बर 2016 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप'
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<poem>
बोझिल हैं ये पलकें बाबू
आ जाओ तो छलकें बाबू I
रूह ढँकी है तन-कपड़े से
घाव न मानें झलकें बाबू I
ऊपर-ऊपर पर्वत-सी मैं
भीतर झरने ढलकें बाबू I
थक के सोतीं आहट पा के
खुल जाती हैं पलकें बाबू I
प्रीत न जाने क्या चाहे है
जिधर निहारूँ झलकें बाबू I
</poem>