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22:40, 17 सितम्बर 2016 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा'
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|संग्रह=
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<poem>
तीरगी से रौशनी का हो गया
मैं मुक़म्मल शाइरी का हो गया
देर तक भटका मैं उसके शह्र में
और फिर उसकी गली का हो गया
सो गया आँखों तले रख के उन्हें
और ख़त का रंग फीका हो गया
एक बोसा ही दिया था रात ने
चाँद तू तो रात ही का हो गया ?
रात भर लड़ता रहा लहरों के साथ
सुब्ह तक ‘कान्हा’ नदी का हॊ गया
</poem>