1,429 bytes added,
22:50, 17 सितम्बर 2016 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हरीफ़ों से मिले रहना
अज़ीज़म भी बने रहना
करम इतना किये रहना
हमें भी पूछते रहना
कि तीरों पर बिछे रहना
मगर रण में डटे रहना
उदासी कह रही है कुछ
चराग़ो ! तुम बुझे रहना
नहीं अच्छा है रिश्तों में
गले हरदम पड़े रहना
ये सूरज बस तुम्हारा है
सो तुम हरदम खिले रहना
बदन को और तोड़ेगा
यूँ बिस्तर पर पड़े रहना
हैं ख़ुश आँखों को मूंदे हम
है अच्छा यूँ छुपे रहना
हमारे डूबने तक तुम
किनारे पर खड़े रहना
मियाँ ! अच्छा नहीं रोना
तो दम साधे पड़े रहना
नहीं है जो तिरा ' कान्हा '
उसी का क्यूँ बने रहना
</poem>