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सवाल / मोहन राणा

1 byte added, 06:13, 28 अप्रैल 2008
सच और भय की अटकलें लगाते
एक तितर -बितर समय के टुकड़ों को बीनता
विस्मृति के झोले में
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगापाऊंगा
मैं सच को
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
यही जान पाता कि सबकुछसब-कुछ
बस यह पल
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