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|रचनाकार=बुधराम यादव
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<poem>
सुर म तो सोरिया सुघर सब लोग मन जुरिया जहंय।
तैं डगर म रेंग भर तो लोग मन ओरिया जहंय।

का खड़े हस ताड़ जइसन बर पीपर कस छितर जा,
तोर छइंहा घाम घाले बर जमो ठोरिया जहंय।

एक दू मछरी करत हें तरिया भर ल मतलहा,
आचरन के जाल फेंकव तौ कहुं फरिया जहय।

झन निठल्ला बइठ अइसन माड़ी कोहनी जोर के,
तोर उद्दीम के करे बंजर घलव हरिया जहय।

देस अऊ का राज कइठन जात अऊ जम्मो धरम,
सुमत अऊ बिसवास के बिन जब कभू छरिया जहंय।

नई पराये ल तैं जाने अऊ न अपने ल सही,
एक दिन अनजान तन ये माटी म तरिया जहय।

नाग नाथे म कन्हइया कस भले करिया जहव,
ये नगर के मनुख तो थोरकुन गोरिया जहंय।

जीये के जत्तर-खतर अब तो जतन ‘बुध’ तियाग दे,
नई तो छिन म तोर कद ह धुर्रा म धुरिया जहय।
</poem>
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