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खण्ड-9 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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सृजन और विध्वंश-लोक में मुझको मिला धरोहर
भर देता है कौन तेज यह मुझमें वेग प्रबलतम
बज उठते हैं बियाबान में दूर-दूर तक छमछम ।छमछम।
मन तरंग है, अग्नि दीप्त यह कहाँ नहीं गति इसकी
एक रूप अनदेखा-देखा सम्मुख में दिखलाता
मैं भी बंदी उसी शक्ति का, जिसमें जगत बंधा है
कहना तो कितना कुछ चाहूँ, लेकिन गला रुंधा है ।है।
ऐसे ही युग में जीने को अब तो विवश हुआ हूँ
जिधर घुमाओ दृष्टि; विखंडन की चलती बारात
क्या बोलूँ मेरा जीवनघर कैसा उजड़ गया है
देख रहा हूँ, बरगद ही जब जड़ से उखड़ गया है ।है।
‘‘तुम कहते हो ब्रह्म खोजने जो जीवों में रमता
यह उसकी है सोच कि जिसका फूटा भाग्य करम है
सच कहते हो दृष्टालोक से भाग्यलोक तक मेरा
घिरा हुआ है क्रूर काल से; कापालिक का फेरा ।’’फेरा।’’
</poem>
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