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खण्ड-3 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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अवश-विवश उस मेरे मन पर कलि का घोर विवर्तन
टूटा हुआ धनुष वेदी पर हविश यज्ञ का अच्युत
उससे भी कुछ अधिक दीन हूँ धरती पर मैं प्रत्युत ।’’प्रत्युत।’’
</poem>
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