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हमारे स्वप्न / डी. एम. मिश्र
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08:51, 1 जनवरी 2017
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हमारे स्वप्न
हमसे भी बड़े
हम बनें जमीन
वो लहरायें खड़े
शाख़ पर हरियालियाँ हों
फूल हों - फल हों
एक पूरा दरख़्त हो जो
ख़ुद में बाग़ीचा लगे
जैसे हमारे स्वर्गवासी
पिता जी का कोट
खॅूटी पर एक वस़्त्र नहीं
पूरी दालान की
ख़ुशबू है
स्वप्न का घर
आँख के बाहर भी हो
जिसमें ठहरें अजनवी
परदेशी भी रात काटें
धर्मशाले की तरह
फिर चढ़े सूरज
दिन की धूप उतरे
नीम के चौरे के ऊपर
फिर लगे चौपाल
खेतियों का जिक्र हो
बेटियों की फिक्र हो
पुस्तकों का पाठ हो
अक्षर आँख खोलें
बन्द हों ढर्रे अशुभ
भूख के जंगल जिधर
काँटे तमाम
ख़ून पीते
पॅाव में
चुभकर मुसाफिर के
स्वप्न हो साकार
पूरी हो चुनौती
चीटियों का कारवाँ
मधुमक्खियों का श्रम
कोयलें के बोल
आदमी की पहॅुच से
अब भी बहुत आगे
</poem>
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