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गिरगिटान / डी. एम. मिश्र
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08:55, 1 जनवरी 2017
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गिरगिटान इतना
बदल जाता है
कि वह हर बार
नया दिखता है
बस, गिरगिटान रहता है
अपने बचाव में
रंग बदलने की
घेाषणा करने वाला
आसानी से
उतर आता है
अपने फायदे पर
निश्चिंत हरा कीड़ा
पीठ से पूँछ तक
छलावेदार हरियाली घूमकर
ख़ुद बैठ जाता है
लाल जीभ पर
पेट भरकर मूड़ी हिलाता
गिरगिटान विनम्र
अभिवादन में: जैसे नेता
पहनकर वही टोपी
वही कुर्ता -वही धोती
जो भाई रामलाल की
हमारे समाज में गिरगिटान की
अनेक प्रजातियाँ हैं
जो गिरगिटान नहीं हैं
फिर भी गिरगिटान है
उस बहुरूपिये को देखो
कैसी मीठी ज़ुबान बोलता है
वह जानता है कि
वह जहाँ बैठा है
वहाँ शीशे के पार से
कुछ दिखता नहीं
वह सामने वाले को
अन्दर बुलाता है
प्यार से बिठाता है
चार नोट दिखाता है
और जान निकाल लेता है
सच कहें
पेट जो कराये
कटी जीभ पर
रोटी बेस्वाद लगती है
</poem>
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