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दाने को मुहताज / डी. एम. मिश्र
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11:35, 1 जनवरी 2017
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<poem>
बात-बात में बावन बीघा
दाने को महताज
बड़ी-बड़ी हरियाली
मुट्ठी खाली- खाली
थूथन कटा पेट भर गया
चरकर सूखी घास
घर को वापस हुए मवेशी
हुई कत्थई शाम
गले पड़ गया फिर वो खूँटा
पगहा-छूँछी नाँद
पेट भरा या खाली
आदत मगर जुगाली
टूटी सड़कें उखड़े रोड़े
जूते फटहे उभरी कीलें
नंगे-नंगे पाँव
ख्वाहिशें चलती हैं
नीचे कनई-ऊपर मड़ई
बीच खाट पर बैठे रंगई
जैसे बुझी चिलम
बिगड़ गया मरजाद
तमन्ना बाकी है
कान पर बीड़ी हो
अमल जब लगती हो
धुँए-घुँए में भीग गयी
ओठों की पपड़ी काली
</poem>
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