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दहशत / डी. एम. मिश्र
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12:06, 1 जनवरी 2017
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<poem>
खुली हवा पर
पाबन्दी
रास्ते बन्द कर दे
पाँव बाँध दे
सड़कें अपने
अकेलेपन पर रोयें
मुट्ठियाँ भिंचे तो क्या
ख़ामोश आँखें
टिकी रहती हैं
खिड़की की झिरी पर
कान लगे रहते हैं
आरव की टोह में
लोहबान का धुआँ
भी उठे तेा
बारूद के धुँए का
शक़ हो
बच्चे पटाखा छोड़े तो
गोली चलने का अंदेशा हो
भरोसा ख़त्म हो
और विश्वास उठ जाये तो
जानी -पहचानी सूरत
गैंडे की शक्ल में
सामने आ खड़ी हो
</poem>
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