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चलो राम समुझ / डी. एम. मिश्र
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12:32, 1 जनवरी 2017
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<poem>
इस कमरे की
दीवारें पक्की हैं
इनसे कितना सिर टकराओं
चिल्लाओ
ये बोलेंगी नहीं
उत्तर भी नहीं देंगी
बस प्रतिध्वनि
लौट आयेगी
चलो राम समुझ
चलो यहाँ से
जहाँ कोई दीवार न हो
कोई छत भी न हो
सिर्फ़ खुला आसमान हो
और बड़ा प्रकाश
सामने हो
</poem>
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