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बाज़ार / डी. एम. मिश्र

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क्या आप इन्सान हैं
यदि हाँ तो
फिर आप क्या हैं
कोई खू़बसूरत चीज़
जिसकी मार्केट वैल्यू है
या मालदार
मार्केट जिसकी जेब में
यदि दोनों नहीं तो
फिर आप
तीसरे कौन है
एक दिन मैं
गेाश्त के बाज़ार से
गुज़र रहा था
देखा कुछ लूले-लँगड़े
थके हारे बूढे भी
बिक रहे थे
लेकिन वो बकरे थे
 
कुछ रंगीन चर्बी वाले
ज़िस्म भी
बाज़ार में मौजूद थे
वो बाहर से ओके
और भीतर
बर्ड -फलू और
एड्स से पीले थे
लेकिन वो मुर्गियाँ
और मुर्गे थे
 
मैंने पूरा बाजार
घूम कर देखा
पैसा अंधा तो नहीं, पर
पैसा बड़ा बेफिक्र होता है
घटिया से घटिया विकल्प
उसकी मुट्ठी में होता है
जहाँ खरीदने और
बेचने वालों का ज़ोर है
बाक़ी भौंकने वालों का शोर है
 
माँस भी
हड्डी भी
ख़ून भी
लेकिन किस काम का
यह देसी कुत्ता
जेा बार-बार
मीट शाप के सामने
आ खड़ा होता है
उठे गड़ासे को देखकर
डरता नहीं
और दुम हिलाता है
</poem>
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