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अन्तर्द्वन्द्व / डी. एम. मिश्र
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16:59, 1 जनवरी 2017
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<poem>
बोलने और
कुछ न बोलने के बीच में
बात उतनी नहीं हो
जितना अन्तर्द्वन्द्व हो
नज़दीक के रिश्ते
जब पास होते
दिखायी नहीं देते
दीवार जो
नींव से निकली
छत से जुड़ी
सामने डटकर
चुप खड़ी
फ़र्ज के कंधे बड़े
जितना लदे
कम लदे
भाग्य का मारा हुआ
खु़द को
अभागा भी नहीं कहता
तुलसी हवाओं में
ख़ुशबू नहीं भरती
एक पूरा वायुमण्डल
शुद्ध होता है
एक झरने से
एक धारा फूटती है
और एक संगीत होता है
दो तल
स्पर्श करके
फिर पृथक होते
लंबे समय तक
एक केवल गीत होता है
जेा कभी गाढ़े समय में
काम आता है
</poem>
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