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गुमराह अक्सर हो गया जहाँ रास्ता आसान था
बढ़ता रहा बेख़ौफ़ मैं गो सामने तूफ़ान था।
कैसी ग़लत-फ़हमी के यारो हो गये हम भी शिकार
जल्लाद जिसको कहते सब देखा तो वो इन्सान था।
 
आराम से दो जून की रोटी जिसे मिलती रही
गोदाम भरने के लिए वो रात-दिन हैरान था।
 
हम लोग घर बैठे रहे पर वोट सारा पड़ गया
उतनी सही सरकार है जितना सही मतदान था।
 
कुर्सी पे जब वो बैठता है कुछ नहीं है देखता
सत्ता से जब वो दूर था वो भी भला इन्सान था।
 
आकाश से छूटी तो वह भी साफ-सुथरी बूँद थी
पर, गिरी कीचड़ में आकर दिल में क्या अरमान था।
</poem>
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