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ज़ुबाँ हो तो वो बोले, बेज़ुबाँ बोले मगर कैसे
ग़रीबी ओढ़कर बैठा लगे पागल कोई जैसे।
कहाँ से घूस वो देता कि जो पेन्शन बनी होती
ज़माना हो गया होगा उसे देखे हुए पैसे।
 
ग़रीबी में न रिश्ता हो, न रिश्तेदार हो कोई
कि वो कम्बख़्त चूहे भी नहीं लौटे गये ऐसे।
 
भले ये छान जर्जर है मगर ताक़त गज़ब की है
अभी तूफ़ान में आधी गिरी, आधी खड़ी कैसे।
 
परीशां हो के बेचारा मसीहा ढूँढता है वो
मगर बस्ती के सारे लोग पत्थर हो गये जैसे।
</poem>
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