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<poem>
जि‍दगी में यूँ तो लाखों ग़म मिले
सोच कर खुश हूँ कि फिर भी कम मिले।
साथ देने के लिए कोई नहीं
नाम ही बस नाम के हमदम मिले।
 
बेगुनाही की सफ़ाई लाख दें
इस निकम्मी पुलिस को तो हम मिले।
 
संत थे, योगी थे, वो धर्मात्मा थे
फिर कहाँ से आश्रमों में बम मिले।
 
वो हरे पेड़ों को कटवाकर कहे
अब कहाँ पहले-सा वो मौसम मिले।
</poem>
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