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11:00, 9 जनवरी 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
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<poem>
हर बात रोटी से चलती है
और रोटी पर खत्म हो जाती है
रोटी वह ‘न्यूक्लियस’ है
जिसके चारों ओर
संसार घूमता है
जैसे ‘इलेक्ट्रान’
बस इसीलिए
रोटी गोलाई लिए होती है
रोटी एक मजबूरी है
जो आदमी को जानवर बना देती है
आज रिक्शे, ताँगों पर
पहिए की जगह रोटी
और रोटी के लिए
घेाड़े की जगह आदमी जुता है
मैंने अक्सर देखा है
रोटी सेंकते
और फुटपाथ पर सोते
मजदूरों को
जिनकी पीठ पर बने
बोझों के ज़ख्म
कभी - कभी चमक उठते हैं
धुआँ छोड़ते
आधे -अधूरे
चूल्हे की रोशनी -सा
</poem>
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