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11:04, 9 जनवरी 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
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<poem>
पहले अपने जूते मजबूत कर लो
फिर सड़क पर आना
इन सड़कों पर
जिन्दगी की गाड़ी
बेतरतीब बोझों से लदीफँदी
कौन घेाड़ा खींच सकता है
बिना एड़ी में नाल ठुकवाये
इंजीनियरों और ठेकेदारों को छोड़िये
अब तो बेलदार भी
अपनी जानकारी में
सड़कों के साथ न्याय नहीं करता
इन सड़कों के कूबड़ तो देखिये
कौन माई का लाल
नंगे पाँव इन पर
चल सकता है
पगडंडियों पर धूल उड़ती थी
वह ठीक थी
पर, इन राजमार्गों की आँखों से
बहते गर्म अलकतरे पर
नंगे पैर ऐसे पड़ते हैं
जैसे गर्म तवे पर
पानी की बूँदें
पगडंडियों तब भी ठीक थीं
गिरने पर फूटने - फाटने
का भय नहीं था
पर, ये झाँवे और खड़ंजे की सड़कें
पैरों के तलवे
लहूलुहान कर देती हैं
मेरे दोस्त
अब वह ज़माना भूल जाओ
जब हमारे-तुम्हारे दादा -परदादा
अपनी ससुराल जाते हुए
पनही लाठी में टाँग कर ले जाते थे
गाँव की चौहद्दी में पहुँचते थे
तब कहीं पहनते थे पनही
उस समय पनही
दिखावटी होती थी
पर, आज के युग में
छोटा -सा - छोटा काम भी बनाने के लिए
हाथ में जूता लेना पड़ता है
</poem>
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